अगर अमेरिका फिर से परमाणु परीक्षण शुरू करे, क्या दुनिया में मच जाएगी आफत

5 hours ago

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने हाल ही में एक साक्षात्कार में दावा किया कि रूस, चीन, पाकिस्तान और उत्तर कोरिया गुप्त रूप से परमाणु परीक्षण कर रहे हैं. इसके आधार पर उन्होंने सुझाव दिया कि अमेरिका को भी फिर से परमाणु परीक्षण शुरू करना चाहिए. वहीं 30 अक्टूबर 2025 को चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से अपनी बैठक से कुछ घंटे पहले, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने सोशल मीडिया पर लिखा “अन्य देशों के परमाणु परीक्षण कार्यक्रमों के कारण, मैंने रक्षा विभाग को निर्देश दिया है कि वे भी समान स्तर पर हमारे परमाणु हथियारों का परीक्षण शुरू करें, यह प्रक्रिया तुरंत शुरू की जाएगी”.

यह दोनों बयान ऐसे समय में आए हैं जब दुनिया की अधिकांश परमाणु शक्तियाँ लगभग दो दशक से “परमाणु मोरेटोरियम” (स्वैच्छिक परीक्षण रोक) का पालन कर रही हैं. हालांकि, तथ्य यह है कि 2017 में उत्तर कोरिया के अंतिम परमाणु परीक्षण के बाद से किसी भी देश ने आधिकारिक तौर पर परमाणु परीक्षण नहीं किया है. ट्रम्प के इस दावे के लिए अभी तक कोई सबूत पेश नहीं किया गया है. ऐसे बयान वैश्विक परमाणु निरस्त्रीकरण के प्रयासों को कमजोर कर सकते हैं और एक नई परमाणु होड़ की आशंका पैदा कर सकते हैं.

शी जिनपिंग से मुलाकात से पहले आए ट्रम्प के पोस्ट ने इन अटकलों को हवा दी जिसमे कहा गया कि पोस्ट का मकसद चीन और रूस – दोनों के प्रति एक संदेश देना था, या ट्रम्प इस पोस्ट के ज़रिए बातचीत से पहले अपने लिए एक दबाव या “मजबूत नेता” की छवि बनाना चाहते हों, चाहे चर्चा का विषय व्यापार हो या परमाणु हथियार.

अमेरिका ने 1945 से 1992 तक 1,030 परमाणु बम के परीक्षण किए, लेकिन 1992 के बाद से उसने ऐसा कोई परीक्षण नहीं किया है. इन परीक्षणों की शुरुआत 16 जुलाई, 1945 को न्यू मैक्सिको में ‘ट्रिनिटी साइट’ से हुई थी. 1951 से 1958 के बीच अमेरिका ने तेजी से 188 परीक्षण किए. 1958 में अमेरिका ने खुद-ब-खुद परीक्षणों पर रोक लगा दी, लेकिन सोवियत संघ के 1961 में फिर से परीक्षण शुरू करने के बाद अमेरिका ने भी ऐसा ही किया. सितंबर 1961 से अमेरिका ने अगले 30 सालों तक हर साल लगभग 27 परीक्षण किए. 1992 में अमेरिका ने आखिरी बार परमाणु विस्फोट परीक्षण किया. अमेरिका ने जब 1961 में परमाणु परीक्षण फिर से शुरू किए, तो उसने केवल 14 महीनों में 106 परीक्षण किए — जिनमें ज़मीन के नीचे, पानी के अंदर और ज़मीन के ऊपर किए गए धमाके शामिल थे.

1992 में, संयुक्त राज्य अमेरिका ने स्वेच्छा से अपने परमाणु परीक्षण कार्यक्रम को निलंबित कर दिया.
इस निर्णय का कानूनी आधार था — Public Law 102-377, यानी Fiscal Year 1993 Energy and Water Development Appropriations Act, जिसके तहत अमेरिकी परमाणु परीक्षणों को औपचारिक रूप से रोका गया. इस कानून में यह प्रावधान किया गया था कि सितंबर 1996 तक अधिकतम 15 अतिरिक्त परमाणु परीक्षण किए जा सकते हैं — जिनका उद्देश्य मौजूदा परमाणु हथियारों में तीन आधुनिक सुरक्षा विशेषताएँ जोड़ना था.

हालाँकि, इतने कम समय में (चार वर्षों से भी कम) और बिना किसी तकनीकी तैयारी या परीक्षण की पूर्व-योजना के, इन सुरक्षा सुधारों को मौजूदा वारहेड डिज़ाइनों में शामिल करना तकनीकी रूप से संभव नहीं था. इसलिए, अमेरिकी प्रशासन ने इन 15 अनुमत परीक्षणों को भी न करने का निर्णय लिया, और उसके बाद से कोई अन्य परमाणु परीक्षण नहीं किया गया.

1945 से 1996 के बीच, दुनिया भर में 2,000 से अधिक परमाणु विस्फोट किए गए, जिनकी कुल संख्या 2056 थी. इनमें से 25% यानी 500 से ज्यादा बम हवा में फोड़े गए. अमेरिका और सोवियत संघ ने प्रत्येक 200 से अधिक हवाई परीक्षण किए, जबकि ब्रिटेन ने 20, फ्रांस ने 50 और चीन ने 20 से अधिक ऐसे परीक्षण किए. फ्रांस ने अपना आखिरी हवाई परीक्षण 1974 में और चीन ने 1980 में किया था. शीत युद्ध के दौरान हुए सभी परमाणु परीक्षणों में से 75% भूमिगत परीक्षण थे.

इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब भी किसी एक प्रमुख शक्ति ने परमाणु परीक्षण का रास्ता अपनाया है, तो उसने एक चेन रिएक्शन को जन्म दिया है, जिससे अंतरराष्ट्रीय तनाव बढ़ा है और एक नई परमाणु होड़ की शुरुआत हुई है. पिछली न्युक्लियर रेस 1945 को शुरू हुई थी और 1992 में जाकर खत्म हुई थी. यदि आज अमेरिका फिर से परमाणु परीक्षण करता है, तो यह एक खतरनाक अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा का संकेत होगा. इससे दुनिया भर में एक नए और अप्रत्याशित परमाणु हथियारों की होड़ का दौर शुरू होने का खतरा पैदा हो जाएगा, जिससे वैश्विक सुरक्षा का नाजुक संतुलन बिगड़ सकता है.

क्या होगा अगर अमेरिका परमाणु परीक्षण कर दे?
वर्त्तमान में अगर अमेरिका परमाणु परीक्षण शुरू करता है, तो यह दुनिया भर में परमाणु असंतुलन पैदा कर देगा. अंतरराष्ट्रीय “डिटरेंस बैलेंस” यानी परमाणु संतुलन बनाए रखने के लिए चीन और रूस भी पीछे नहीं रहेंगे. यूरोप पर जब दबाव बढ़ेगा, तो ब्रिटेन और फ्रांस भी अपनी सुरक्षा के नाम पर परमाणु परीक्षणों की दौड़ में शामिल हो जाएंगे.

एशिया में इसकी गूंज सबसे ज़्यादा होगी. उत्तर कोरिया – दक्षिण कोरिया और जापान को डराने के लिए नए धमाके करेगा, पाकिस्तान भारत को उकसाएगा और भारत रीजनल बैलेंस बनाए रखने के लिए मजबूर होकर परीक्षण करेगा. ये सिलसिला किसी वैज्ञानिक “चेन रिएक्शन” की तरह फैलेगा — एक करेगा तो दूसरा भी करेगा, और जो जितना बड़ा करेगा, दूसरा उससे बड़ा करने की कोशिश करेगा. नतीजा — तीन दशक बाद दुनिया फिर उसी मोड़ पर खड़ी होगी, जहाँ परमाणु युद्ध का साया हर देश पर मंडरा रहा था.

हर देश यही दावा करेगा कि वह सिर्फ “डिटरेंस” यानी “विरोध” के लिए परीक्षण कर रहा है ताकि दुश्मन हमला न करे. लेकिन जब एक तरफ का डिटरेंस दूसरी तरफ के लिए “खतरा” बन जाता है, तो यह एक लूप में फंस जाता है. जितना ज़्यादा आप अपनी सुरक्षा बढ़ाते हैं, दुश्मन उतना ही असुरक्षित महसूस करता है और वह भी अपनी सुरक्षा बढ़ा लेता है. नतीजा यह होता है कि सबकी सुरक्षा कम हो जाती है और सबका खतरा बढ़ जाता है.

जब बड़ी शक्तियाँ जैसे अमेरिका, रूस, चीन, भारत, ब्रिटेन और फ्रांस फिर से परीक्षण शुरू कर देंगे, तो CTBT (Comprehensive Nuclear-Test-Ban Treaty) जैसी अंतरराष्ट्रीय संधियों की बची-खुची विश्वसनीयता भी खत्म हो जाएगी. इससे ईरान, सऊदी अरब जैसे देश भी यह सोचने पर मजबूर हो सकते हैं कि अब उन पर मर्यादा लागू करने वाला कोई नहीं बचा. इस तरह परमाणु हथियारों का प्रसार (Proliferation) और तेज़ हो सकता है.

यह दुनिया को एक ऐसी स्थिति में धकेल दिया जाएगा जहां हर देश दुश्मन की नीयत को लेकर और ज़्यादा शक करेगा, कोई भी छोटी-सी गलतफहमी या तकनीकी गड़बड़ी एक बड़े संघर्ष को जन्म दे देगी, क्योंकि सबके तैनात परमाणु हथियार “हाई अलर्ट” पर होंगे. दुनिया की अर्थव्यवस्था एक विशाल सैन्य-औद्योगिक परिसर में तब्दील हो जाएगी, और विकास के लिए आवश्यक संसाधन हथियारों पर खर्च होने लगेंगे.

फायदा और नुक्सान कैसे?
अमेरिका: अगर परमाणु परीक्षण की पहल अमेरिका करता है, तो तकनीकी तौर पर उसका फायदा साफ़ है. वह अपने पुराने परमाणु हथियारों के डिज़ाइन की जांच कर सकेगा, नई पीढ़ी के और भी उन्नत वॉरहेड्स बना सकेगा, और दुनिया को यह संदेश देगा कि उसकी तकनीकी बढ़त आज भी अडिग है. यह कदम उसे रणनीतिक रूप से और मज़बूत दिखाएगा तथा उसके विरोधी देशों — खासकर चीन, रूस, उत्तर कोरिया और ईरान — को एक सख़्त चेतावनी भेजेगा कि अमेरिका किसी भी चुनौती का जवाब देने को तैयार है.

लेकिन इसका दूसरा पहलू कहीं ज़्यादा खतरनाक है. इस कदम से अमेरिका का नैतिक और कूटनीतिक नेतृत्व दोनों ही कमजोर पड़ जाएंगे. परमाणु अप्रसार (Non-Proliferation) की मुहिम, जिसका वह दशकों से सबसे बड़ा पैरोकार रहा है, उसी के हाथों अपनी साख खो देगी. अमेरिका पर “न्यूक्लियर रेस” को फिर से भड़काने का आरोप लगेगा. उसके यूरोपीय सहयोगी असहज होंगे, और चीन-रूस इसे पश्चिमी दोहरे मापदंडों का सबूत बताएंगे.

रूस / चीन: अगर इस परमाणु रेस की शुरुआत रूस या चीन करते हैं, तो इसका मक़सद अमेरिका के बराबर या उससे आगे निकलने का रणनीतिक प्रदर्शन होगा. दोनों देश यह दिखाना चाहेंगे कि वे अब केवल क्षेत्रीय ताकत नहीं, बल्कि वैश्विक शक्ति हैं. ऐसे कदम से घरेलू मोर्चे पर दोनों सरकारों को राजनीतिक फायदा मिलेगा. राष्ट्रवाद और “राष्ट्रीय गर्व” की भावना से जनता के बीच अपप्रियतानी लोक बढ़ा सकते हैं.

मगर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसका भारी राजनीतिक और आर्थिक नुकसान होगा. पश्चिमी देश, खासकर अमेरिका और यूरोप, रूस या चीन पर और कठोर प्रतिबंध लगाएंगे. जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप के देश डरकर अपनी सुरक्षा व्यवस्था को मज़बूत करेंगे — कुछ तो अमेरिका के “न्यूक्लियर शील्ड” पर और ज़्यादा निर्भर हो जाएंगे. अमेरिका को वैश्विक सुरक्षा का “केंद्र” बनने का और भी बड़ा मौक़ा मिल जाएगा.

पाकिस्तान: अगर पाकिस्तान कोई परमाणु परीक्षण करता है तो उसके पीछे सिग्नलिंग का मकसद भारत को दिखाना होगा कि उसका न्यूक्लियर प्रोग्राम सक्रिय है. इसके ज़रिये घरेलू राजनीतिक माहौल में राष्ट्रवाद जगा कर सत्तात्मक समर्थन पाना मकसद होगा. तथापि तात्कालिक परिणाम गंभीर होंगे – कूटनीतिक आइसोलेशन, पश्चिमी प्रतिबंध और वित्तीय प्रभाव (विदेशी सहायता व निवेश में गिरावट), IMF व अंतर्राष्ट्रीय बैंकों का दबाव और पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था पर तेज़ झटका.

तकनीकी तौर पर परीक्षण तुरंत CTBTO/IMS (Comprehensive Nuclear-Test-Ban Treaty Organization) के ग्लोबल नेटवर्क द्वारा पकड़ा जाएगा, इसलिए छुपाना मुश्किल है. सुरक्षा दृष्टि से भारत तत्काल सतर्क होगा—सीमाओं पर परिनियोजन, इंटेलिजेंस व निगरानी बढ़ेगी और दिल्ली के पास विकल्प होंगे: कूटनीतिक दबाव तेज़ करना, सैन्य तैयारियाँ बढ़ाना या (यदि स्थिति और बिगड़े तो) अपनी क्षमता मजबूत करने के लिए कदम उठाना — जो दक्षिण एशिया में तेज़ी से आर्म्स रेस को बढ़ावा देगा.

अब तक किसने किये कितने परीक्षण?
अमेरिका: अगर परमाणु परीक्षणों की बात करें तो अमेरिका ने 16 जुलाई 1945 को न्यू मैक्सिको में अपना पहला परमाणु परीक्षण किया और 23 सितंबर 1992 को आखिरी. कुल 1030 परीक्षण किए गए, जिसमें 1962 में 96 परीक्षणों का सबसे बड़ा रिकॉर्ड था. 49 वर्षों में उसके लगभग 22 परीक्षण प्रति वर्ष हुए. अमेरिका ने 1946 में मार्शल द्वीप समूह में पहला अंडरवाटर परीक्षण (ऑपरेशन क्रॉसरोड्स) और 1955 में 600 मीटर गहराई में एकमात्र अंडरवाटर टेस्ट (ऑपरेशन विगवाम) भी किया.

सोवियत संघ (अब रूस) ने 1949 में पहला और 24 अक्टूबर 1990 में आखिरी परीक्षण किया. कुल 712 परीक्षण किए गए, जिसमें 1962 में 79 परीक्षणों का सबसे बड़ा आंकड़ा था. 41 वर्षों में उसके लगभग 17.3 परीक्षण प्रति वर्ष किये गए.

फ्रांस ने 1960 में पहला और जनवरी 1996 में आखिरी परीक्षण किया. उसने कुल 210 परीक्षण किए, जिसमें 1980 में 12 परीक्षणों का सबसे बड़ा रिकॉर्ड था. 36 वर्षों में उसके लगभग 5.8 परीक्षण प्रति वर्ष हुए.

ब्रिटेन ने 1952 में पहला और 26 नवंबर 1991 को आखिरी परीक्षण किया. उसने कुल 45 परीक्षण किए.

चीन ने 1964 में पहला और जुलाई 1996 में आखिरी परीक्षण किया. उसने कुल 45 परीक्षण किए.

उत्तर कोरिया ने 2006 में पहला और 2017 में आखिरी परीक्षण किया. उसने कुल 6 परीक्षण किए.

भारत ने 1974 में पहला और 1998 में आखिरी परीक्षण किया. उसने कुल 3 परीक्षण किए.

पाकिस्तान ने अपने सभी 2 परीक्षण 1998 में ही किए.

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