अश्वतथामा के साथ कृपाचार्य भी थे पांडवों पुत्रों की हत्या में,तब भी किए गए माफ

4 hours ago

महाभारत में द्रोणाचार्य के मारे जाने के बाद अश्वतथामा क्रोध से भर उठा, क्योंकि उसके पिता को धोखे से मारा गया था. बदला लेने के लिए वह रात के अंधेरे में पांडवों के कैंप में घुसा. पांचों पांडव पुत्रों की निर्ममता से हत्या कर दी. तब उसके मामा कृपाचार्य भी साथ थे. ना तो उन्होंने उसे रोका और ना इस काम से खुद को अलग किया. इस हत्या के बाद पांडवों का सारा गुस्सा केवल अश्वतथामा पर निकला. कृपाचार्य को किसी ने कुछ नहीं कहा. बल्कि उन्होंने युधिष्ठिर के राज में भी अच्छा पद हासिल किया.

महाभारत युद्ध के अंतिम दिनों में अश्वत्थामा ने पांडवों के पुत्रों (उपपांडवों) की निर्मम हत्या की. यह घटना सौप्तिक पर्व (रात्रि-युद्ध) में बताई गई है. अश्वत्थामा ने कृपाचार्य और कृतवर्मा के साथ मिलकर रात के अंधेरे में पांडवों के शिविर पर हमला किया. उस समय पांडव स्वयं वहां नहीं थे. शिविर में द्रौपदी के पांचों पुत्र और अन्य योद्धा सो रहे थे.

अश्वत्थामा ने अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग न करके अंधेरे में गदा और तलवार से सोते हुए योद्धाओं को मारा. उसने धृष्टद्युम्न को जगाया. उसके सिर को अपने घुटनों से कुचलकर मार डाला. जब पांडवों को पता चला, तो भीम और अर्जुन ने अश्वत्थामा का पीछा किया.अंत में अश्वत्थामा को श्राप मिला, वह 3,000 वर्ष तक जीवित रहेगा, घावों और पीड़ा से भरा हुआ.

कृपाचार्य तब उसके साथ थे

यह घटना अधर्म मानी गई, क्योंकि निर्दोष बालकों को मारना पाप था. हालांकि इस काम में कृपाचार्य ना केवल उसके साथ थे बल्कि उन्होंने उसको ये काम करने से रोका भी नहीं बल्कि ये सब करके कृपाचार्य और अश्वतथामा उस जगह गए, जहां दुर्योधन मरने का इंतजार कर रहा था. उन सबने मिलकर बताया कि उन्होंने क्या किया. इस पर दुर्योधन खुश भी हुआ.

कृपाचार्य को पांडवों ने ना केवल माफ किया बल्कि कौरवों की हार के बाद जब युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर का राजकाज संभाला तो कृपाचार्य को सलाहकार बना दिया. (image generated by Leonardo AI)

क्यों कृपाचार्य को माफ कर दिया गया

सवाल यही है कि पांडवों और कृष्ण ने कैसे कृपाचार्य को माफ कर दिया, जब इसमें उनकी भूमिका कोई कम संदिग्ध नहीं थी. इसमें तर्क दिया जाता है कि कृपाचार्य साथ जरूर थे लेकिन उन्होंने सीधे हत्या नहीं की. बल्कि उसको बचाने की कोशिश भी की. अश्वतथामा उनका भांजा था और द्रोणाचार्य बहनोई.

महाभारत युद्ध के बाद कृपाचार्य के खिलाफ कोई सीधी कार्रवाई नहीं की गई, क्योंकि वे एक सम्मानित गुरु और धर्मज्ञ व्यक्ति थे. भीम और अर्जुन ने अश्वत्थामा को घेर लिया, लेकिन कृपाचार्य को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया. हां, कृपाचार्य ने युद्ध के बाद अश्वत्थामा को छोड़ दिया, क्योंकि उसने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करके पांडवों के वंश को खत्म करने की कोशिश की थी.

फिर कृपाचार्य हस्तिनापुर में सलाहकार भी बने

पांडवों ने कृपाचार्य को नहीं मारा, क्योंकि वह ब्राह्मण और गुरु थे. धर्म के अनुसार उन्हें सम्मान देना जरूरी था. हालांकि ये बात सही है कि कृपाचार्य आखिर तक कौरवों के प्रति वफादार रहे, लेकिन युद्ध खत्म उन्होंने पांडवों के खिलाफ कोई और विद्रोह नहीं किया. वह परिक्षित (अर्जुन के पौत्र) के राज्याभिषेक में मौजूद रहे. जब युधिष्ठिर राजा बने तो उन्होंने हस्तिनापुर के शासन में सलाहकार की भूमिका निभाई. कुछ मान्यताओं के अनुसार, वे युधिष्ठिर के राजगुरु भी बने.

पांडवों और कृष्ण ने क्या माना

बहुत से लोग हैरान होंगे कि जिस शख्स ने पांडव पुत्रों की हत्या में अश्वतथामा का साथ दिया, उसका कुछ क्यों नहीं हुआ. तो उस पर यही कहा जाता है कि पांडवों और कृष्ण ने ये माना कि वह तौर पर सीधे हत्याओं में शामिल नहीं थे. फिर उनका सम्मान धर्म और शास्त्रों के कारण भी था. यही वजह थी कि
पांडवों ने कृपाचार्य को छोड़ दिया. धर्मशास्त्र के अनुसार, ब्राह्मणों को हिंसा या दंड से मुक्त रखने की परंपरा थी, खासकर यदि वे सीधे अपराधी न हों.

युद्ध के बाद बदल गया कृपाचार्य का रुख

शायद इसका कारण यह था कि कृपाचार्य युद्ध के बाद शांत रहे. उन्होंने पांडवों के प्रति कोई और शत्रुता नहीं दिखाई. हालांकि कुछ विद्वान मानते हैं कि कृपाचार्य अश्वत्थामा के गुरु और संरक्षक थे, इसलिए उन्होंने उसे रोकने का प्रयास नहीं किया. वह खुद भी द्रोणाचार्य की मृत्यु से आहत थे. पांडवों ने भी समझा कि कृपाचार्य की भूमिका मजबूरी या निष्ठा के कारण थी ना कि द्वेषपूर्ण.

रहस्यमय है उनके जन्म की कहानी

वैसे कृपाचार्य के जन्म की कहानी भी रहस्यमय और अद्भुत है. एक बार ऋषि शरभंग (या शरद्वान) नाम के एक महान तपस्वी ने कठोर तपस्या करके अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया. वह इतने शक्तिशाली हो गए कि देवता भी डरने लगे. इंद्र ने उनकी तपस्या भंग करने के लिए एक अप्सरा भेजी, जिसका नाम जानपदी था. ऋषि शरभंग उसके सौंदर्य से विचलित हो गए. उनका वीर्यपात हो गया.

झाड़ी में पड़े वीर्य से पैदा हुए

लज्जित होकर ऋषि ने अपना वीर्य एक शमी (झाड़ी) के पत्तों पर त्याग दिया. वहां से चले गए. उसी समय राजा शांतनु (भीष्म के पिता) वन में शिकार खेल रहे थे. उन्होंने देखा कि दो शिशु (एक पुत्र और एक पुत्री) शमी के पत्तों पर पड़े हैं. राजा ने उन्हें कृपा (दया) से उठा लिया. अपने साथ ले आए. इसलिए उनका नाम कृपा (बेटी) और कृपाचार्य (बेटा) पड़ा. कृपाचार्य और उनकी बहन कृपा का पालन-पोषण हस्तिनापुर के राजमहल में हुआ.

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