भारत की आजादी में मुस्लिम संगठनों की अहम भूमिका: जब भी भारत की आजादी के आंदोलन की बात होती है तो मुख्य रूप से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, महात्मा गांधी, स्टालिन नेहरू, सुभाष चंद्र बोस और भगत सिंह का नाम लिया जाता है। लेकिन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के विभिन्न चरणों में मुस्लिम नेतृत्व ने बहुत बड़ा योगदान दिया है। उन्होंने (मुसलमानों ने) स्वतंत्रता संग्राम में बहुत बड़ी भूमिका निभाई और बलिदान दिया। अंतिम मुगल शासक बहादुर शाह जफर से लेकर नवाबों, राजकुमारों, छोटी-बजरी जमींदारों, मौलवियों, उलेमाओं और आम लोगों तक, सभी ने इस लड़ाई के लिए और बड़ी कहानियों का सामना और बलिदान दिया।
भारत की आजादी की लड़ाई में योगदान देने वाले प्रमुख मुस्लिम नेता, डॉक्टर जाकिर हुसैन, मौलाना अबुल कलाम आजाद, खान अब्दुल गफ्फार खान, मौलाना मोहम्मद अली जौहर, मौलाना मोहम्मद अली, मोहम्मद शौकत अली, मोहम्मद बरकातुल्ला, बदरुद्दीन तैयबजी और हकीम अजमल खान वगैहरा थे। इस आंदोलन में कई मुस्लिम धर्मावलंबियों ने भी हिस्सा लिया था। जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अलावा कई और ऐसे संगठन थे, जिन्होंने कांग्रेस के कंधे से कंधा मिलाकर काम किया था। जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ कई विद्रोहियों को भाग लिया और देश की एकता और अखंडता के लिए काम किया।
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जमीयत उलेमा-ए-हिंद
जमीयत उलेमा-ए-हिंद की स्थापना वर्ष 1919 में हुई थी। इसका मुख्य उद्देश्य कैथोलिक को धार्मिक नेतृत्व देना था। बाद में इसका और विस्तार किया गया। साल 1940 में मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने जमीयत की कमान संभाली। वह 1957 तक राष्ट्रपति पद पर रहे। वर्ष 1940 में लाहौर लाहौर में मोहम्मद अली जिन्ना और कुछ अन्य मुस्लिम नेताओं ने अलग-अलग मुस्लिम राष्ट्रों की मांग की तो जमीयत ने इसका पुरजोर विरोध किया था। द्वि-राष्ट्रवाद के सिद्धांत पर पाकिस्तान के मशहूर शायर अल्लामा शायर और हुसैन अहमद मदनी के बीच भी काफी बहस हुई। हुसैन अहमद मदनी ने कहा कि इस्लाम भारत के लिए नया नहीं है। दादी को भारत छोड़ने का कोई तुक नहीं है।
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भारत छोड़ो आंदोलन में विद्वान
जमीयत ने 5 अगस्त, 1942 को बंधक से भारत छोड़ो की यात्रा की। इसके बाद 9 अगस्त को कांग्रेस द्वारा प्रसिद्ध भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित किया गया, जिसके कारण कांग्रेस और जमीयत नेताओं को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। इससे पहले भी अप्रैल, 1940 में मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने भारत की स्वराज्य की मांग की थी। परिणामस्वरूप उन्हें गिरफ्तार कर नैनी जेल में बंद कर दिया गया। हुसैन अहमद मदनी ने अपने भाषण में कहा था कि आजादी के बाद हम सभी मिलकर भारत में ऐसी सरकार बनाने की कोशिश करेंगे, जिसमें हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई और पारसी आदि सभी शामिल हों। इस्लाम में भी इसी तरह की आज़ादी का ज़िक्र किया गया है। हुसैन मदनी की इस अपील में अपना प्रभाव दिखाया गया। उत्तर प्रदेश बिहार और लाखों आदिवासियों ने पाकिस्तान जाने के बजाय भारत में ही रहने का फैसला किया।
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मजलिस-ए-अहरार-ए-इस्लाम
मजलिस-ए-अहरार-ए-इस्लाम की स्थापना साल 1929 में हुई थी. मजलिस-ए-अहरार-ए-इस्लाम एक ऐसा संगठन था, जिसने भारत के बंटवारे का जमकर विरोध किया था. मजलिस-ए-अहरार-ए-इस्लाम ने भारत की पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की और ब्रिटिश शासन के खिलाफ सक्रिय रूप से लड़ाई लड़ने का काम किया. सुभाष चंद्र बोस ने 31 अगस्त, 1942 को बर्लिन से अपने रेडियो संदेश में इस संगठन का नाम लेते हुए कहा था कि मजलिस-ए-अहरार-ए-इस्लाम एक राष्ट्रवादी मुस्लिम पार्टी है. इस संगठन ने 1939 में सबसे पहले सविनय अवज्ञा अभियान की शुरुआत की थी. मजलिस-ए-अहरार-ए-इस्लाम उस समय आजाद मुस्लिम कांफ्रेंस का हिस्सा था, जिसने पूरे देश के मुसलमानों को एक मंच पर लाने का काम किया था. इसका मकसद कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बंटवारे की राजनीति से निकाल कर मुसलमानों को उनकी सही नुमाइंदगी देने का था. इसके साथ ही इस संगठन ने सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने और देश के सभी समुदायों को एकजुट करने के लिए भी काम किया.
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खुदाई खिदमतगार
खान अब्दुल गफ्फार खान ने इस संगठन की स्थापना 1929 में की थी. गफ्फार खान, जिन्हें बादशाह खान और फ्रंटियर गांधी के नाम से भी जाना जाता है, ने दुनिया की पहली अहिंसक सेना बनाई, जिसमें एक लाख पठान थे. हालांकि गफ्फार खान के शुरुआती सुधार प्रयास गांधी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ उनके जुड़ाव से पहले के थे. लेकिन बाद में गफ्फार खान ने उनके साथ एक औपचारिक गठबंधन बनाया और 1930-1931 के कांग्रेस के सविनय अवज्ञा अभियान के दौरान और उसके बाद एक दुर्जेय शक्ति बन गए. इसके सदस्यों को उनके द्वारा पहनी जाने वाली लाल वर्दी के रूप में जाना जाता था. शुरू में उन्होंने गांव की परियोजनाओं को संगठित करने और स्कूल खोलने का काम शुरू किया, लेकिन जल्द ही वे व्यापक भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा बन गए. खुदाई खिदमतगार ने अहिंसक तरीके से आजादी की लड़ाई में भाग लिया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ कई आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाई. इस संगठन ने सामाजिक सुधार और शिक्षा के प्रसार के लिए भी काम किया. देश के बंटवारे के बाद यह संगठन पाकिस्तान में लंबे समय तक सक्रिय रहा.
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ऑल इंडिया मोमिन कॉन्फ्रेंस
इस संगठन के अगुआ अब्दुल कयूम के वकील ने कहा था कि जो खुद एक बड़े स्वतंत्रता सेनानी थे। ऑल इंडिया मोमिन कॉन्फ्रेंस ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का समर्थन किया और आजादी की लड़ाई में भाग लिया। अब्दुल कयूम वकील ने देश की आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभाई। वह अपने लोगों के बीच में थे और देश की आजादी के लिए जागरूकता फैलाते थे। 16 साल की उम्र में उन्हें अंग्रेजी सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करते हुए जुर्म में जेल में डाल दिया गया था। 1919 में जब महात्मा गांधी ने इसके खिलाफ आंदोलन की स्थापना की तो उनकी भूमिका काफी सक्रिय रही। 1920 में महात्मा गांधी के पुजारी अब्दुल कयूम वकील ने बिहार राज्य से असहयोग आंदोलन का नेतृत्व किया। 1927 में उन्होंने साइमन कमीशन के भारत आगमन पर उग्र विरोध प्रदर्शन किया। 1937-38 में अब्दुल कयूम शोधकर्ता ने मोमिन आंदोलन की शुरुआत की। 1940 में उन्होंने मुस्लिम लीग के आंतकी समुदायों और पाकिस्तान की मांग का जोरदार विरोध किया। उन्होंने 1942 में गांधीजी के भारत छोड़ो आंदोलन में काफी सक्रिय भूमिका निभाई। उन्होंने भारत के आतंकवाद का विरोध किया था. अब्दुल कय्यूम ने 1947 में भारत के मुख़ालफ़त की और मुस्लिम समुदाय से अपील की कि वे भारत को पाकिस्तान ख़त्म न करें। इस संगठन ने मुस्लिम समुदाय की शक्तियों की रक्षा और उनके सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए काम किया।
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राष्ट्रवादी मुस्लिम पार्टी
इस पार्टी के अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आज़ाद थे। इस पार्टी ने देश की आजादी के लिए काम किया और उस वक्त के सभी मुस्लिम धर्मावलंबियों में एक खास जगह बनाई। इनके अलावा कई मुस्लिम नेताओं और राजनेताओं ने भी आजादी की लड़ाई में अपना योगदान दिया। देश की आजादी के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ लड़ाई वाले सैकड़ों और हजारों भारतीय नाटकों का नाम प्रभावशाली है। हालाँकि, इस दावे की सत्यता इस तथ्य से प्रमाणित होती है कि उनमें से कई ने भारत में ही चुना, जिन्हें वे अपना एकमात्र घर मानते थे।