ना मोबाइल था, ना बिजली…तब गांवों में ऐसे होता था उजाला, अब म्यूजियम में दिखता

1 day ago

Last Updated:May 28, 2025, 12:45 IST

Kerosene lamps: अमरेली के सावरकुंडला में कभी मिट्टी के तेल से जलने वाले लोहे के दीये गांवों की रौशनी का जरिया थे. बिजली और सौर ऊर्जा के बढ़ते उपयोग के कारण ये दीये अब इतिहास बन चुके हैं.

ना मोबाइल था, ना बिजली…तब गांवों में ऐसे होता था उजाला, अब म्यूजियम में दिखता

पुराने जमाने के दिए

सौराष्ट्र क्षेत्र, जो कभी अपने पारंपरिक जीवनशैली और देहाती संसाधनों के लिए जाना जाता था, अब धीरे-धीरे आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है. इस बदलाव में वो चीज़ें भी पीछे छूट रही हैं जो कभी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का अहम हिस्सा हुआ करती थीं. अमरेली जिले के सावरकुंडला शहर में एक समय था जब मिट्टी के तेल से जलने वाले लोहे के दीये हर घर में पाए जाते थे, लेकिन अब ये दीये केवल इतिहास बनकर रह गए हैं.

बिजली से पहले दीयों का था राज
वो दौर ऐसा था जब गांवों और कस्बों में बिजली की सुविधा या तो नहीं थी या बहुत कम हुआ करती थी. तब रात के अंधेरे में उजाला करने के लिए मिट्टी के तेल से जलने वाले लोहे के लैंप सबसे बड़ी सहारा होते थे. जयभाई नागड़िया बताते हैं कि इन दीयों की मदद से लोग न सिर्फ घर में रोशनी करते थे बल्कि खेतों में काम, बच्चों की पढ़ाई और रसोई के काम भी इन्हीं के सहारे किए जाते थे.

ग्रामीण इलाकों में दीयों की खास पहचान
अमरेली के कई गांवों में आज भी बुजुर्गों की जुबान पर इन दीयों की कहानियाँ हैं. बिजली की लगातार सप्लाई न होने के कारण झुग्गी-झोपड़ियों और दूरदराज़ के इलाकों में इन दीयों का इस्तेमाल रोज़ाना होता था. कम खर्च में ज्यादा रोशनी देने वाले ये दीये 20 रुपये से लेकर 40 रुपये तक मिल जाते थे. इनमें दो तरह के दीये होते थे—एक फनल के साथ और दूसरा बिना फनल के.

किसानों की जुगाड़ से बनते थे अनोखे दीये
गांव के किसान खुद अपने हाथों से दीये बनाते थे. पुराने कीटनाशक के डिब्बों में छेद करके, साइकिल या मोटरसाइकिल के टायरों की ट्यूब से वाल्व निकालकर वो ऐसा लैंप तैयार कर लेते थे जो घंटों जलता था. ये लैंप खेतों में भी काम आते थे और घरों में भी. ये न सिर्फ सस्ता था बल्कि टिकाऊ भी था.

अब मिट्टी के तेल और दीये दोनों हो चुके हैं गुमनाम
वक्त के साथ सब कुछ बदल गया है. अब गांवों में भी बिजली की सुविधा आसानी से उपलब्ध हो गई है. सौर ऊर्जा का भी इस्तेमाल बढ़ गया है. इसी वजह से ना सिर्फ मिट्टी के तेल की ज़रूरत खत्म हो गई है, बल्कि इन दीयों का चलन भी पूरी तरह खत्म हो गया है. आज के युवाओं ने शायद कभी इन दीयों को देखा भी नहीं होगा.

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