Last Updated:March 03, 2025, 18:12 IST
नारायण मूर्ति और सुब्रह्मण्यम के बाद नीति आयोग के पूर्व सीईओ अमिताभ कांत ने भी युवाओं को 80-90 घंटे काम करने की सलाह दी है. उनकी इस सलाह पर अखिलेश ने तंज कसते हुए कहा है कि मेहनत और ईमानदारी से क्वालिटी वर्क जर...और पढ़ें

सप्ताह में 90 घंटे काम करने के सुझाव को किसी तरह व्यावहारिक नहीं माना जा सकता.
हाइलाइट्स
देश में काम के घंटे तय हैंनौकरीपेशा को परिवार भी देखना हैबार- बार क्यों शुरु हो जा रही है काम के घंटे पर बहसइंफोसिस के नारायण मूर्ति के 70 घंटों के बाद एलएनटी के एसएन सुब्रह्मण्यम 90 घंटे काम की सलाह देकर अपनी किरकिरी करा चुके हैं. अब नीति आयोग के पूर्व सीईओ अमिताभ कांत ने 80-90 घंटे काम करने की युवाओं को सलाह दे डाली है. इस पर उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बिना अमिताभ कांत का नाम लिए कहा है कि कहीं वे इंसान की जगह रोबोट की बात तो नहीं कर रहे.
खैर, राजनीतिक बयानबाजी को दरकिनार भी कर दिया जाए तो यह सवाल बड़ा अहम हो जाता है कि आखिर कितने घंटे काम करने चाहिए. देश की सरकार और कॉरपोरेट ने काम के घंटे तय कर रखे हैं. सप्ताह में पांच दिन काम करने वाले हर दिन 9 घंटे के हिसाब से 45 घंटे काम करते हैं. सिर्फ एक दिन का वीकली ऑफ लेने वाले 8 घंटे रोजाना के हिसाब से 48 घंटे काम करते हैं. इसे बैलेंस करने के लिए 9 घंटे की शिफ्ट में ज्यादातर जगहों पर घंटे भर का एक बार या आधे-आधे घंटे का ब्रेक लेते हैं तो 48 घंटे वालों को सिर्फ एक ब्रेक आधे घंटे का रोजाना मिलता है. इस तरह से कम से कम साढ़े चवालीस-पैंतालीस घंटे काम ज्यादातर नौकरीपेशा लोग कर ही लेते हैं.
अपना रोजगार करने वाले और किसानों-मजदूरों को इससे अलग रखना चाहिए. ऐसे लोगों को संपर्क में जो भी लोग रहे हैं उन्हें पता है कि वे जितने घंटे भी जरूरत पड़ती है काम करते ही हैं. अब भले ही स्थितियां कुछ बदल गई हों, लेकिन किसान अक्सर रात के आखिरी पहर तक सिंचाई करने के लिए बिजली का इंतजार करता रहा है. किसानों-मजदूरों और छोटे दूकनदार के सामने कोई चारा नहीं है, जबकि बड़े व्यवसायी, व्यापारी, उद्योगपति सर्वसुविधा संपन्न है. खैर, चर्चा का विषय ये नहीं है.
बहस इस बात पर है कि अव्यावहारिक सुझाव देने वाले कैसे भूल जाते हैं कि 90 घंटे काम के लिए हर रोज 12 घंटे काम किया जाए तो भी सप्ताह में सिर्फ 84 घंटे ही होते हैं. छह घंटे और पूरे करने के लिए छह दिनों तक किसी को 13 घंटे काम करना होगा. मतलब यह है कि इस टारगेट को अचीव करने के लिए छह दिनों तक किसी को भी 13 घंटे और रविवार को एक घंटे की छुट्टी लेकर 12 घंटे काम करना होगा. यह सारा सुझाव युवा शक्ति के लिए दिया जा रहा है. कहने की जरूरत नहीं है कि युवा शक्ति पूरी तरह साधना में लग भी जाए तो वह अपने माता-पिता और बच्चों या बच्चे की देखरेख कैसे करेगा.
नौकरीपेशा अपने दफ्तर के आस-पास भी रह नहीं सकता. महंगाई की वजह से. मंझोले और छोटे पदों पर काम करने वाले तो अपने ऑफिस के मोहल्लों से भी कम से कम घंटे भर की दूरी पर ही रहते हैं. यानी उसे आने-जाने के लिए भी कम से कम दो घंटे चाहिए होंगे. किसी के पास अगर अपनी गाड़ी है भी तो ड्राइवर रखने की हैसियत ऐसे लोगों की नहीं है. (वैसे याद दिला दें अपने यहां गाड़ी का मतलब मोटरसाइकिल भी होती है.) दो घंटे की दूरी उसे खुद ही ड्राइव करके तय करनी है. यानी उसका काम 15 घंटे का हो गया. 24 में से 15 घंटे घटा दें तो 9 घंटे बचेंगे. अब वह कब अपने परिवार के लिए आटा-दाल खरीदेगा और कब परिवार के लिए दूसरे काम करेगा. इस नौ घंटे में उसे अपनी दैनिक क्रिया भी करनी है.
एक सफल उद्यमी और दूसरे चोटी का सीईओ ने अपने-अपने हिसाब से सुझाव दिए तो लगा कि ये दोनों तो अपना काम करते हैं. लेकिन जब नीति आयोग के पूर्व सीईओ की ओर से भी यही बात निकली तो थोड़ा ठहर कर सोचना पड़ता है. ऐसा लगता है कि उन्होंने यह बात सुविधा संपन्न प्रभु वर्ग के युवाओं के लिए कही हो. क्योंकि उन्हें यह पता होगा कि देश में जरूरी सेवाएं देने वाले कई विभागों और निजी क्षेत्रों में भी काम करने वाले लोग जरूरत पड़ने पर काम से पीछे नहीं हटते. बात चाहे पुलिस जैसे महकमों में काम करने की हो, या हेल्थ ड्यूटी में लगे स्वास्थ्यकर्मियों की हो. देखने में आया है कि जरूरत पड़ने पर यह अमला कई दिन तक काम करता है. इसी तरह से निजी क्षेत्र में कई सेक्टर खास तौर से आईटी या बैंकिंग की बात की जाए तो वे भी काम खत्म किए बगैर नहीं हटते. वक्त चाहे जितना ही लग जाए. यहां इसका भी उल्लेख करना मौजूं है कि इनमें से सभी को उनकी मेहनत का सही मुआवजा भी नहीं मिलता.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि मेहनत और ईमानदारी से काम करने से ही देश की तरक्की हो सकती है. लेकिन अव्यावहारिक सलाह को उचित नहीं कहा जा सकता. खास तौर से जब देश के दो दिग्गज काम के घंटे बढ़ाने की बात कह कर सामाजिक रूप से ट्रोल हो चुके हों तो फिर से उसी बात को उठाना निश्चित तौर पर एक विवाद को न्योता देने जैसा ही होगा.
First Published :
March 03, 2025, 17:20 IST