Who was Mahsa Amini: इजराइल के साथ गहराते जंग के बीच तमाम अटकलें ईरानी सुप्रीम लीडर अयातुल्ला अली खामेनेई को लेकर लगाई जा रही हैं. इजराइल ने खामेनेई को हिटलर करार दिया है और ये जोर देकर कहा है, कि ऐसे शख्स को जीने का कोई हक नहीं. खामेनेई ने भले ही इन धमकियों के आगे झुकने से इंकार किया है और अपनी सेना से कहा है कि वो इजराइल पर हमले और ज्यादा ताकत से जारी रखे. लेकिन इन सबके बीच जो एक बात क्लीयर है वो ये, कि इस जंग ने खामेनेई को मुसीबत में जरूर डाल दिया है. ईरान में खामेनेई के विरोधी कह रहे हैं कि ये सबकुछ उस लड़की की बददुआ का असर है, जिसकी मौत 3 साल पहले खामेनेई की मोरल पुलिस की हिरासत में हुई थी. कौन है वो लड़की और क्या थी खामेनेई को उसकी बददुआ, जानिए ये दिलचस्प कहानी आज की रिपोर्ट से.
21 साल की उस लड़की की बददुआ
आज के ईरान में इजराइली हमले से जो तबाही अयातुल्ला अली खामेनेई देख रहे हैं, क्या उस लड़की की बददुआएं इतनी घातक होने वाली थी. खामेनेई भले ही जिंदा हैं, मगर उनके सामने उनके बाशिंदों का इतना संगीन हाल और सैकड़ों बेकसूर लोगों की मौत. क्या उन्हें भी याद दिला रही है 21 साल की उस लड़की की बददुआ.
इजराइली हमले में अब तक 650 ईरानी नागरिक मारे गए हैं और करीब 1500 लोग जख्मी हुए हैं. ईरान के सुप्रीम खलीफा कहे जाने वाले खामेनेई अपनी आंखों के सामने सब देख रहे हैं, अपनी रियाया की बिछती लाशें और अपनी जान पर बढ़ता इजराइल और अमेरिका का खतरा. ये खतरा साफ है क्योंकि डोनल्ड ट्रंप कह चुके हैं कि ईरान के पूरे आसमान पर हमारा कंट्रोल है. हम ठीक से जानते हैं कि तथाकथित ‘सर्वोच्च नेता’ कहां छिपा हुआ है. वहीं इजरायली रक्षा मंत्री इस्रायल काट्ज का कहना है कि ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्ला अली खामेनेई मॉडर्न हिटलर हैं. उनके जैसे तानाशाह को जीने का अधिकार नहीं है.
खामेनेई की जान को सीधा खतरा
ये दोनों धमकियां बता रही हैं, कि खामेनेई की जान को सीधा खतरा है. अगर वो किसी बंकर में भी छिप जाएं, तो अमेरिकी बंकर बम उसे जमींदोज करने में सक्षम है. तो क्या इजराइल से उलझना क्या ईरानी सुप्रीम लीडर का एंड गेम साबित होने वाला है...? खामेनेई के इसी अंत की तो बददुआ दे गई थी 21 साल की लड़की महसा अमीनी. जिसे हिजाब पहनने की तहजीब सिखाने के नाम पर खामेनेई की मोरल पुलिस उठा ले गई थी. लेकिन उस हिरासत से वो लड़की जिंदा नहीं लौटी.
ये ज्यादा नहीं, तीन साल पहले की ही तो बात है. खामेनेई उसके गवाह हैं. महिलाओं को जबरन हिजाब पहनने को मजबूर करने वाले खामेनेई ने पुलिस हिरासत में जाते जाते तानाशाह कहा था. 13 सितंबर 2022 का वो दिन जब महसा अमीनी अरेस्ट की गई और 17 सितंबर 2022 को खबर आई कि पुलिस कस्टडी में महसा की मौत हो गई है!
जब सड़कों पर उतर गए लाखों लोग
खामेनेई की मोरल पुलिस, यानी ईरानी पुलिस की वो शाखा, जो मजहबी रिवाज को कट्टरता से लागू करती है, उसकी हिरासत एक 21 साल की लड़की की मौत कैसे हो गई? ये सवाल पूरे ईरान में जंगल की आग की तरह फैला. लाखों की तादाद में महिलाएं और पुरुष खामेनेई के खिलाफ सड़कों पर उतर गए. खामेनेई के खिलाफ पूरे ईरान में एक क्रांति खड़ी हो गई. उन्हें तानाशाह कहते हुए मुर्दाबाद के नारे लगने लगे.
पुलिस ने भले ही ये कहते हुए पल्ला झाड़ने की कोशिश की कि महसा अमीनी की मौत दिल का दौरा पड़ने की वजह से अस्पताल में हुआ था. लेकिन 21 साल की एक स्वस्थ लड़की को दिल का दौरा और दो दिन का कोमा? पुलिस का ये जवाब ईरानी आवाम को रास नहीं आया. लोगों ने प्रदर्शन तेज किए, तो खामेनेई के कंट्रोल वाली पुलिस उन्हें प्रदर्शन से रोकने के लिए और भी सख्ती करने लगी. वो मंजर पूरी दुनिया ने देखा है.
कुर्द मूल की छात्रा थी महसा अमीनी
उस मंजर में पूरी दुनिया ने वो नारे सुने हैं, जो खामेनेई के खिलाफ लगे गए, कई पोस्टरों पर उन्हें सत्ता से बेदखल करने, तो कईयों में उन्हें मौत की बददुआ दी गई. ये सवाल पूछा जाने लगा, कि सिर्फ हिजाब पहनने के धार्मिक रिवाज को लेकर अपने ही आवाम पर इतना सख्त कौन होता है. ऐसी सख्ती से खामेनेई आखिर साबित क्या करना चाहते हैं.
21 साल की महसा अमीनी ईरान के कुर्द मूल की छात्रा थीं. ये ईरान में एक अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय है. 17 सितंबर को महसा की मौत की खबर के बाद जो विरोध प्रदर्शन भड़का, उसे पहले नस्ली विरोध करार देने की कोशिश की गई. लेकिन हालात काबू नहीं हुए. ईरान में वो प्रदर्शन करीब 6 महीने तक चला. जैसे तैसे सरकार ने उस आंदोलन में फूट तो डाल दी, लेकिन महसा की मौत ने ईरान में मौलवी शासन के खिलाफ बरसो से दबे गुस्से को सतह पर ला दिया.
खामेनेई के निर्देश पर दिया गया अंजाम
उस आंदोलन के दौरान खामेनेई बड़े खलनायक बनकर उभरे थे. हालांकि बाद में उन्होंने महिलाओं को फूल का दर्जा दिया और ये कहा कि उनके साथ घर और बाहर नाजुक व्यावहार किया जाना चाहिए, लेकिन आज भी महसा की पुण्यतिथि पर लोग जमा होते हैं और कट्टर मजहबी पुलिसिंग के खिलाफ आवाज उठाते हैं. लेकिन आज के खामेनेई फिलिस्तीन और हिज्बुल्ला जैसे आतंकी संगठनों को शह देकर पूरे मुस्लिम जगत का खलीफा बनने की फिराक में हैं.
इजराइल से ईरान की सीधी दुश्मनी क्या है? आखिर दोनों देशों के बीच ये जंग क्यों छिड़ी है? इस सवाल का जवाब अगर आप ढूंढेंगे, तो इसमें क्षेत्रीय राजनीति में बादशाहत की चाहत पहले सर्च में ही मिलेगी. इजराइल जहां फिलिस्तीन समेत बचे खुचे गाजा पर पश्चिमी देशों के शह पर कब्जा चाहता है, तो खामेनेई की कोशिश पिछले 5 दशकों से इजराइल का बढ़ता प्रभुत्व रोकने की है.
मोटे तौर पर इसे आप दो प्वाइंट्स में समझ सकते हैं.
खामेनेई की पॉलिटिक्स
1- पहला- लेबनान में ‘हिजबुल्ला’ को समर्थन
2- दूसरा- फिलिस्तीन में ‘हमास’ की सहायता
पक्के दोस्त कैसे बन गए जानी दुश्मन?
खामेनेई की ये टू प्वाइंट पॉलिटिक्स जानने के बाद अब ये भी जान लीजिए, कि इजराइल लेबनान में सत्ता चला रहे हिजुबुल्ला और फिलिस्तीन के हमास, दोनों संगठनों को आतंकी संगठन मानता है. लेकिन खामेनेई को इससे फर्क नहीं पड़ता. खामेनेई की पूरी व्यवस्था हमास और हिजबुल्ला दोनों ही संगठनों को धन और सैन्य सहायता पहुंचाती रही है. खासतौर पर 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद.
हैरत की बात ये है कि 1979 से पहले दोस्त थे ईरान-इजराइल लेकिन इस्लामिक क्रांति के बाद दोनों जानी दुश्मन बन गए! ये एक ऐतिहासिक तथ्य है, कि 1979 की इस्लामिक क्रांति और ईरान में तख्ता पलट से पहले इजराइल और ईरान के बीच दोस्ताना संबंध थे. तब ईरान किसी पश्चिमी देश की तरह आधुनिक और खुली संस्कृति वाला देश हुआ करता था.
बिगड़ते चले गए दोनों के संबंध
लेकिन इस्लामिक चरमपंथियों के देश की सत्ता पर कब्जे के बाद पूरा समीकरण बदल गया. ईरानी समाज में कट्टर इस्लामी रिवाजों का पालन अनिवार्य कर दिया गया.इससे इजराइल समेत तमाम पश्चिमी देशों से ईरान के संबंध बिगड़ते चले गए. 1990 के दशक के खाड़ी युद्ध के बाद तो इजराइल के साथ ईरान के सभी राजनियक संबंध भी टूट गए. ईरान जहां इजराइल के विरोधियों और इसके द्वारा घोषित आतंकी संगठनों को शह देने लगा, तो अमेरिका जैसे देश इजराइल के पक्ष में खुल कर आ गए.
आज दोनों देशों के बीच जो जंग छिड़ी है, उसकी बुनियाद यही है. और 86 साल के खामेनेई यू कहिए इस जंग के सूत्रधार. लेकिन खामेनेई की मुश्किल इससे आसान नहीं होती, बल्कि जिस इस्लामिक भाईचारे का हवाला देते हुए वो फिलिस्तीन और लेबनान जैसे देशों के पक्ष में खड़े हुए, उस सिद्धांत के आधार पर मध्य पूर्व का कोई इस्लामिक देश उनके साथ वैसे नहीं खड़ा.
अकेले पड़े ‘ख़लीफ़ा’?
ना तो लेबनान का हिजबुल्ला खुल कर सामने आया है और ना ही फिलिस्तीन के हमास के लड़ाके आगे आए हैं. यमन के हूती विद्रोही और इराक की शिया मिलिशिया भी साथ नहीं दे रही. सउदी अरब जैसे दूसरे इस्लामिक देश भी जंग पर चुप्पी साधे हुए हैं. तो क्या 1980 के दशक में 8 साल लंबे चले इराक से युद्ध की तरह इजराइल से जंग भी खामेनेई अकेले ही लड़ेंगे और ऐसा हुआ तो अमेरिका समर्थित इस जंग में कब तक टिकेंगे? खामेनेई की जान को खतरे को लेकर जवाब इन्हीं सवालों छिपा है.