One Nation, One Election: क्या संविधान के खिलाफ है एक देश-एक चुनाव?

8 hours ago

One Nation, One Election: सरकार एक देश-एक चुनाव की दिशा में एक कदम आगे बढ़ा चुकी है. इसको लेकर बनी कोविन्द की रिपोर्ट स्वीकार की जा चुकी है. अब देखना है कि आने वाले समय में इस मुद्दे के रास्ते में कौन-कौन सी अड़चन आने वाली है.

Source: News18Hindi Last updated on:September 19, 2024 6:14 PM IST

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 क्या संविधान के खिलाफ है एक देश-एक चुनाव?

कोविंद कमेटी ने इस बारे में अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपी थी.

एक देश-एक चुनाव (वन नेशन, वन इलेक्शन) की दिशा में देश एक कदम और आगे बढ़ गया है. हालांकि, आगे का रास्ता कठिन है. कैसे? यह आगे समझेंगे. साथ ही, यह भी जानेंगे कि अगर मोदी सरकार की यह पहल हकीकत बनी तो इसका असर क्या होगा? साथ ही, यह भी समझते हैं कि पूरे देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाने का समर्थन और विरोध किन तर्कों के आधार पर हो रहा है. विरोध करने वाले यह भी कहते हैं कि यह संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ होगा. क्या वाकई ऐसा है? कोविन्द कमेटी ने विरोधियों की इस चिंता का क्या जवाब दिया है, यह भी जानेंगे.


आगे का रास्ता कठिन कैसे?

वन नेशन, वन इलेक्शन कैसे संभव हो सकता है और इससे जुड़े तमाम पहलुओं पर विचार देने के लिए केंद्र सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय कमेटी बनाई थी. इस कमेटी ने 18626 पन्नों की रिपोर्ट तैयार की और 14 मार्च, 2024 को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंप दी. इस रिपोर्ट को 18 सितंबर, 2024 को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने मंजूरी दे दी.

अब सरकार को दो संविधान संशोधन बिल पारित कराने होने. एक तो राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल बदलने से संबंधित और दूसरा, नगरपालिकाओं व पंचायतों का कार्यकाल बदलने के लिए. पहला लोकसभा और राज्यसभा के दो-तिहाई बहुमत से हो जाएगा, लेकिन दूसरे के लिए राज्य विधानसभाओं की भी मंजूरी चाहिए होगी.


दिक्कत यहीं है. लोकसभा में दो-तिहाई बहुमत के लिए 543 में से 362 सदस्यों का समर्थन चाहिए. एनडीए के पास हैं 293. राज्यसभा में अभी 234 सदस्य हैं, जिनमें से एनडीए के 126 हैं. दो-तिहाई से 30 कम. अगर राज्यसभा के सभी 250 सदस्य मतदान के वक़्त मौजूद हों तो दो-तिहाई समर्थन के लिए 164 वोट चाहिए होंगे.


लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव के सौ दिन के भीतर नगरपालिकाओं और पंचायतों के चुनाव करवाने की सिफ़ारिश की गई है. इसके लिए जो संविधान संशोधन विधेयक पारित करना होगा, उसमें कम से कम आधे राज्यों की विधानसभा से भी मंजूरी लेने की जरूरत होगी. अभी 28 में से 19 राज्यों में एनडीए की सरकार है. तो, इस लिहाज से राज्यों में मुश्किल नहीं भी आ सकती है, लेकिन वहां तक जाने से पहले लोकसभा और राज्यसभा पार करना मुश्किल दिख रहा है.

शायद इसी मुश्किल को देखते हुए अश्विनी वैष्णव ने इस सवाल का जवाब नहीं दिया कि एक साथ चुनाव करने की यह व्यवस्था 2029 से लागू होगी या 2034 से. उन्होंने बस इतना कहा कि गृह मंत्री अमित शाह पहले ही कह चुके हैं कि यह काम मोदी सरकार के इसी कार्यकाल में पूरा कर लिया जाएगा.


एक देश-एक चुनाव से फायदा क्या?

एक देश-एक चुनाव के समर्थन में कई तर्क दिए जाते रहे हैं. इनमें पहला तो यही है कि यह कोई नई बात नहीं है, 1967 तक ऐसा ही होता था. अब अलग-अलग चुनाव होने के चलते पार्टियों को ज़्यादातर वक़्त चुनावी मोड में ही रहना पड़ता है. इससे सरकार का कामकाज और विकास प्रभावित होता है.

एक और तर्क खर्च का है. वन नेशन, वन इलेक्शन के समर्थक कहते हैं कि आजकल चुनाव बहुत खर्चीले हो गए हैं और इस कदम से पैसे की बचत होगी. कुछ रिपोर्ट्स में बताया गया है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में करीब 60,0000 करोड़ रुपये खर्च हुए थे. समर्थक ये भी कहते हैं कि 1999 और 2018 में विधि आयोग भी एक साथ चुनाव कराने का सुझाव दे चुका है.


विरोधी बताते हैं संविधान की भावना के खिलाफ

एक देश-एक चुनाव का विरोध करने वालों के भी अपने तर्क हैं. उनकी चिंता है कि इसे संभव बनाने के लिए कई विधानसभाओं को उनके तय कार्यकाल से पहले भंग करना होगा, जो जनता की इच्छा और संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ होगा.

इनका कहना है कि सबसे बड़ी मुश्किल तो यह है कि इसे संभव बनाने के लिए संसद का दो-तिहाई समर्थन लेने के अलावा आधे राज्य विधानसभाओं की भी सहमति लेनी होगी. दूसरा तर्क है कि यह व्यवस्था सदन में अविश्वास प्रस्ताव लाने के प्रावधान का महत्व कम कर देगी, क्योंकि अविश्वास प्रस्ताव गिरने पर मध्यावधि चुनाव कि स्थिति बनेगी. ईवीएम की उपलब्धता और सुरक्षा इंतजाम आदि से जुड़ी चिंताएं भी हैं.


विरोधियों के तर्क का कोविन्द कमेटी की रिपोर्ट में है जवाब

कोविन्द कमेटी की रिपोर्ट में कुल 11 अध्याय हैं. अध्याय 6 में उन सवालों के जवाब हैं जिनके आधार पर वन नेशन, वन इलेक्शन का विरोध किया जाता है. विधानसभाओं के समय से पहले भंग होने पर आपत्ति की सफाई में रिपोर्ट में कहा गया है कि बहुमत के अभाव या अन्य राजनीतिक कारणों से समय से पहले विधानसभा भंग किए जाने के कई उदाहरण मौजूद हैं. संविधान के आर्टिकल 83 और 172 में इनके कार्यकाल के बारे में कहा गया है कि पांच साल से ज्यादा नहीं होना चाहिए, कोई न्यूनतम कार्यकाल नहीं बताया गया है.

जनता की इच्छा और लोकतांत्रिक भावना के खिलाफ वाले तर्क को भी खारिज करते हुए कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि इससे जनता का समय और सरकारी संसाधन की बचत होगी. साथ ही यह भी कहा गया है कि एक साथ चुनाव की प्रक्रिया में जनता को मतदान में भाग लेने से किसी भी तरह रोका नहीं जा रहा है और न ही स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की मौजूदा व्यवस्था से छेड़छाड़ की जा रही है. राज्यों के अधिकार में कटौती की दलील को भी कमेटी ने यह कहते हुए खारिज कि है कि संविधान के अनुच्छेद 327 और 328 में लिखा है कि चुनाव से संबन्धित नियम बनाने की शक्ति केंद्र के पास है.


मेरी राय

मेरी राय में एक देश-एक चुनाव अच्छी पहल है. अगर यह अमल में आया तो जरूरत होगी सही तरीके से चुनाव संचालन की व्यवस्था करने की और यह सुनिश्चित करने की कि समर्थक जो तर्क देते हैं उसे वास्तव में कैसे सच किया जाए. चुनाव प्रक्रिया लंबी न खींचे, ताकि सरकारी काम ज्यादा समय तक बाधित न हो. जनता को भी इसके बारे में जागरूक करने की जरूरत है, ताकि सांसद और विधायक चुनने के लिए जरूरी अलग पैमानों पर अपना फैसला ले सकें. इससे शायद नेताओं की यह शिकायत भी दूर हो कि एक साथ चुनाव कराने का फायदा किसी एक पार्टी (सत्ताधारी) को मिल सकता है. चुनाव सुधारों की कड़ी में यह यह एक महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है. लेकिन, इसके साथ ही एक और जरूरी सुधार पर भी सरकार को ध्यान देने की जरूरत है. वह है राइट टु रिकॉल (Right to recall), यानि जनप्रतिनिधि उम्मीदों पर खरा न उतरे तो उसका निर्वाचन रद्द करने के अधिकार. इस अधिकार के नहीं होने से वोटर्स को मिला उम्मीदवारों को नापसंद करने का अधिकार (NOTA) भी बेमानी साबित हो रहा है.

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)

ब्लॉगर के बारे में

व‍िजय कुमार झा

व‍िजय कुमार झा

व‍िजय कुमार झा जनसत्‍ता.कॉम के पूर्व संपादक हैं। पत्रकार‍िता में करीब ढाई दशक से हैं। ऑनलाइन मीड‍िया के अलावा, प्र‍िंंट मीड‍िया में भी लंबा वक्‍त गुजारा है। देश के तमाम बड़े अखबारों में अलग-अलग ज‍िम्‍मेदारी न‍िभाते हुए तरह-तरह के प्रयोग क‍िए हैं और अपने अनुभव को लगातार न‍िखारते रहे हैं। व‍िजय जनसत्‍ता ड‍िज‍िटल में अक्‍तूबर, 2015 से हैं। इससे पहले वह दैन‍िकभास्‍कर.कॉम में पांच साल रहे। पाठक को केंद्र में रखकर कंटेंट प्‍लान और प्रेजेंट करना उनकी सबसे बड़ी ताकत है। दैन‍िक भास्‍कर ड‍िज‍िटल से पहले व‍िजय ने करीब आठ साल देश के तमाम बड़े अखबारों के न्‍यूजरूम में काम क‍िया। उन्‍होंने दैन‍िक जागरण, दैन‍िक भास्‍कर, नवभारत टाइम्‍स जैसे अखबारों में तरह-तरह की ज‍िम्‍मेदार‍ियां न‍िभाईं। इसी बीच करीब दो साल रांची (प्रभात खबर) और भागलपुर (दैन‍िक जागरण) में रह कर आंचल‍िक पत्रकार‍िता की चुनौत‍ियों व बारीक‍ियों को भी नजदीक से जाना-समझा और जीया। व‍िजय ने 2001 में भारतीय जनसंचार संस्‍थान (आईआईएमसी) से न‍िकलने के बाद पत्रकार‍िता की शुरुआत ऑनलाइन मीड‍िया से ही की थी। नेटजाल.कॉम के साथ। यह एक मल्‍टील‍िंंग्वल न्‍यूज पोर्टल था। 2010 में दैन‍िक भास्‍कर के साथ एक बार फ‍िर व‍िजय ने ड‍िज‍िटल पत्रकार‍िता में वापसी की। तब से ऑनलाइन पत्रकार‍िता की चुनौत‍ियों को समझने और इनसे न‍िपटने का न‍िरंतर प्रयास जारी है। सोशल मीड‍िया पर फेक न्‍यूज की बाढ़ और इससे जुड़ी चुनौत‍ियों से न‍िपटने के ल‍िए व‍िजय ने 2022 में IAMAI-Meta fact-checking news fellowship पूरी की। अब वह Certified Fact-checker हैं। अगर कभी खाली समय म‍िला तो व‍िजय गाने सुनना, क‍िताबें पढ़ना और गप्‍पें मारना पसंद करते हैं।

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First published: September 19, 2024 6:14 PM IST

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