India News: देश के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का निधन हो गया. उन्हें भारत में उदारीकरण का जनक माना जाता है. उन्हें भारत में मुक्त बाजार का सबसे बड़ा पैरोकार माना जाता है. मगर उनके साथ एक और नाम है, जिन्होंने कभी इंदिरा गांधी को ही खुली चुनौती दे दी थी. आज जानेंगे कहानी आरसी कूपर की.
Source: News18Hindi Last updated on:January 3, 2025 11:32 AM IST
मनमोहन सिंह के साथ ही मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के एक और प्रखर समर्थक थे डॉ. आर.सी. कूपर.
भारत में उदारीकरण के प्रवर्तक और मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के पैरोकार माने जानेवाले पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का हाल ही में निधन हुआ. इस मौके पर डॉ. मनमोहन सिंह की तरह ही मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के एक और प्रखर समर्थक डॉ. आर.सी. कूपर याद आते हैं. 14 जुलाई 1969 को संसद या संघीय योजना आयोग को सूचित किए बिना इंदिरा गांधी ने स्पेशल प्रेसिडेंशियल डिक्री के जरिए 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था. इसके पीछे इंदिरा का तर्क यह था कि इससे आम लोगों, खासकर संकटग्रस्त कृषि क्षेत्र की बैंकिंग वित्त सेवाओं तक पहुंच बढ़ेगी.
इस समय डॉ. कूपर स्वतंत्र पार्टी के महासचिव थे. जो 1967 के आम चुनावों में लोकसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के रूप में उभरी थी. इस पार्टी की स्थापना ‘राजाजी’ के नाम से विख्यात चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने की थी. वे स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल थे और महात्मा गांधी ने उन्हें ‘मेरी अंतरात्मा का संरक्षक’ की संज्ञा से नवाजा था. राजाजी ने नेहरूवादी समाजवाद के विरोध स्वरूप इस पार्टी का गठन किया था. 15 अगस्त 1959 को मुंबई में इसकी स्थापना के दौरान मंच पर जहां राजाजी विराजमान थे, वहीं उनके ठीक पीछे कूपर को भी बैठे देखा जा सकता था, जो उस वक्त अपेक्षाकृत काफी युवा थे.
आरसी कूपर मुक्त बाजार अर्थव्यवस्थाओं के शुरुआती समर्थकों में से एक थे. इंग्लैंड से चार्टर्ड अकाउंटेंट कूपर इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ चार्टर्ड अकाउंटेंट्स के अध्यक्ष थे. अर्थशास्त्र में पीएच-डी धारक कूपर प्रभावशाली ‘फ्री एंटप्राइज फोरम’ के उपाध्यक्ष भी रहे. वे उस सोवियत शैली के मार्क्सवादी समाजवाद के पुराने मॉडल को अपनाने के भी कटु आलोचक थे. इसे इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस पसंद करती थी. कूपर दक्षिण पूर्व एशिया की उभरती अर्थव्यवस्थाओं के बड़े प्रशंसक थे. फ्री एंटप्राइज फोरम जर्नल में उन्होंने सिंगापुर का उदाहरण देते हुए ‘बीसवीं सदी का समाजवाद’ शीर्षक से एक लेख लिखा था.
इसमें उन्होंने लिखा था:
‘प्रतिकूल पड़ोसियों से घिरे सिंगापुर ने समाजवादियों और पूंजीपतियों एवं पश्चिम जगत के घोर आलोचक कम्युनिस्टों की गठबंधन सरकार के साथ अपनी स्वतंत्र राह पर आगे बढ़ने की शुरुआत की. लेकिन आर्थिक संकेत कोई बहुत सुखद नहीं थे. छह साल बाद ही आर्थिक विकास एवं स्थिरता की जो तस्वीर पेश की गई. वह अविश्वसनीय रूप से लगभग धुंधली नजर आ रही थी. अपने कम्युनिस्ट साझेदारों से रहित इसी समाजवादी सरकार को जल्द ही इस बात का एहसास हो चुका था कि अगर विकास की रफ्तार को तेज करना है तो यह काम निजी उद्यमों और विदेशी पूंजी के बगैर संभव नहीं है. उत्पादन के साधनों के राष्ट्रीयकरण से समानता के मार्क्सवादी सपनों को हासिल नहीं किया जा सकता और न ही कहीं हासिल किया गया है. तो एक सवाल यह उठता है कि आखिर हम समाजवाद को लेकर अपनी सोच बदलने के लिए तैयार क्यों नहीं हैं? इसका जवाब इस तथ्य में निहित है कि इस देश (भारत) में हमारे नेताओं ने जिस तरह का समाजवाद अपनाया है, उसने सरकारी पूंजीवादी व्यवस्था में ऐसे स्वार्थी हित पैदा कर दिए हैं, जहां नेताओं के लिए पाना ही पाना है, मगर जनता के लिए खोना ही खोना.’ (फोरम ऑफ फ्री एंटप्राइज मैग्जीन, आर.सी. कूपर)
जब इंदिरा के फैसले को कपूर ने दी चुनौती
जिस दिन इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, उस दिन ‘बैंक राष्ट्रीयकरण अध्यादेश’ को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने के लिए कूपर तुरंत मुंबई से नई दिल्ली पहुंचे. वे यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि शेयरधारकों के अधिकारों का हनन न हो और उनकी हिस्सेदारी अक्षुण्ण रहे. कूपर सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के निदेशक मंडल में शामिल थे. यह भी राष्ट्रीयकृत बैंकों में से एक था. बैंक में कूपर एक शेयरहोल्डर थे और इस वजह से उन्हें सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने का अधिकार था.
कूपर ने राजमोहन गांधी (महात्मा गांधी के पोते) द्वारा संपादित ‘हिम्मत वीकली’ में अदालत की सुनवाई के दौरान के अपने अनुभव इन शब्दों में बयां किए थे: ‘जिस तरीके से यह सबकुछ (बैंकों का राष्ट्रीयकरण) किया गया, उसी कारण से मैंने इसे गंभीरता से लिया. मुझे लगा कि यह बहुत जल्दबाजी में और एक तरह से अधिनायकवादी रवैये के साथ किया गया. मैंने यह भी महसूस किया कि इसे जितनी जल्दबाजी में अंजाम दिया गया, उससे संविधान की पवित्रता का स्पष्ट उल्लंघन हुआ. इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले जाने का मेरा मुख्य उद्देश्य संविधान की पवित्रता, कानून के शासन और व्यक्तिगत, खासकर आम लोगों तथा छोटे शेयरधारकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करना था.’ (‘मैंने सुप्रीम कोर्ट का रुख क्यों किया?’, आर.सी. कूपर)
6 महीने तक चलता रहा मुकदमा
आर.सी. कूपर बनाम भारत संघ (1970) का यह मुकदमा करीब छह महीने तक चला. जाने-माने विधि विशेषज्ञ नानी पालखीवाला ने कूपर का पक्ष रखा. 10 फरवरी 1970 को सुप्रीम कोर्ट के 11 जजों की पीठ ने 10-1 के बहुमत से कूपर के पक्ष में फैसला सुनाया. इस फैसले के मद्देनजर 14 फरवरी को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति वी.वी. गिरि को 14 राष्ट्रीयकृत बैंकों के शेयरधारकों को मुआवजा प्रदान करने के लिए एक और प्रेसिडेंशियल डिक्री पारित करने के लिए मजबूर होना पड़ा. इंदिरा गांधी इस मुआवजे का भुगतान तीन किस्तों में करने पर राजी हो गईं. प्रख्यात लेखक और फिल्म निर्माता ख्वाजा अहमद अब्बास के मुताबिक, इंदिरा सरकार को 87 करोड़ रुपए तीन समान किस्तों में शेयरधारकों को चुकाने पड़े. (दैट वुमन: इंदिरा गांधीज सेवन ईयर्स इन पावर, के.ए. अब्बास)
जब इंदिरा ने लगाया आपातकाल
साल 1974 में स्वतंत्र पार्टी का अस्तित्व समाप्त हो गया. इसके अगले साल 1975 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगा दिया, जो करीब 29 महीने तक चला. इसके तहत नागरिक स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों पर अनेक प्रतिबंध लगा दिए गए. अपने परिवार और बंबई के अपने पारसी समुदाय के बड़े-बुजुर्गों की सलाह पर कूपर ने सिंगापुर जाने का फैसला किया. अगले 38 वर्ष वे सिंगापुर में ही रहे और वहां के बहु-सांस्कृतिक माहौल में बड़ी आसानी से घुल-मिल गए. उन्होंने सिंगापुर की नागरिकता ले लीं और वहां एक फाइनेंस कंसलटेंसी कंपनी की स्थापना की.
कपूर ने कौन सी दो किताबें लिखीं
कूपर ने दो किताबें ‘जॉब शेयरिंग इन सिंगापुर’ (1986) और ‘वॉर ऑन वेस्ट’(1991) लिखीं. सिंगापुर के व्यावसायिक बिरादरी में उनका बड़ा सम्मान था. उन्होंने अपनी अंतरराष्ट्रीय संबद्धताएं भी बनाए रखीं, खासकर यूनाइटेड किंगडम में, जहां वे असम ऑयल कंपनी और डंकन मैकनील (असम टी कंपनी) के निदेशक मंडल में थे। दोनों कंपनियां उस समय बहुराष्ट्रीय ‘इंचकैप ग्रुप’ का हिस्सा थीं. उन्होंने अपने जीवन के अंतिम छह साल सिंगापुर के शांग्री-ला होटल में स्थायी रूप से रहते हुए बिताए. जून 2013 में लंदन की यात्रा के दौरान 90 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)
ब्लॉगर के बारे में
रशीद किदवई
रशीद किदवई देश के जाने वाले पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं. वह ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ORF) के विजिटिंग फेलो भी हैं. राजनीति से लेकर हिंदी सिनेमा पर उनकी खास पकड़ है. 'सोनिया: ए बायोग्राफी', 'बैलट: टेन एपिसोड्स दैट हैव शेप्ड इंडियाज डेमोक्रेसी', 'नेता-अभिनेता: बॉलीवुड स्टार पावर इन इंडियन पॉलिटिक्स', 'द हाउस ऑफ़ सिंधियाज: ए सागा ऑफ पावर, पॉलिटिक्स एंड इंट्रीग' और 'भारत के प्रधानमंत्री' उनकी चर्चित किताबें हैं. रशीद किदवई से - rasheedkidwai@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
First published: January 3, 2025 11:32 AM IST