हरियाणा में हार पर कांग्रेस की रिपोर्ट आ गई. पार्टी के चोटी के नेताओं को सौंप भी दी गई. रिपोर्ट में हार के कारण गिना दिए गए हैं. लेकिन रिपोर्ट के बारे में जो खबरें बाहर आ रही है उससे तो यही लग रहा है कि कांग्रेस पार्टी में आलाकमान जैसी कोई ताकत रह ही नहीं गई है. दूसरे शब्दों में कहा जाय तो रिपोर्ट ये भी बता रही है कि राहुल गांधी की पार्टी पर वैसी पकड़ नहीं है जैसी होनी चाहिए. औपचारिक तौर पर राहुल कांग्रेस अध्यक्ष भले न हों लेकिन देश भर में यही माना जाता है कि राहुल गांधी ही कांग्रेस के सर्वेसर्वा हैं. राहुल अभी लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं और मलिकार्जुन खरगे कांग्रेस अध्यक्ष.
आलाकमान कहां से आया?
कांग्रेस पार्टी में इंदिरा गांधी के दौर से ही पार्टी अध्यक्ष की हैसियत घट गई थी और आलाकमान शब्द का इस्तेमाल शुरु किया गया. हालांकि बाद के दौर में इंदिरा गांधी ही पार्टी अध्यक्ष भी बन गई. हां, कुछ समय के लिए कार्यकारी अध्यक्ष की नियुक्तियां जरूर की गई. बहरहाल, मुद्दा अब के आलाकमान का है तो अभी राहुल गांधी कई मौकों पर साबित कर चुके हैं कि वे ही कांग्रेस के आलाकमान है. जैसे सजायाफ्ता जनप्रतिनिधियों की सदस्यता जाने वाले मसले पर डॉ. मनमोहन सिंह के बिल की प्रति राहुल गांधी ने जब फाड़ी थी तब वे पार्टी अध्यक्ष नहीं थे. लेकिन पीएम के फैसले की उन्होंने चिंद्दियां उड़ा दी. अब भी पार्टी में जब दिग्गजों के बीच कोई विवाद होता है तो वो खरगे की दुहाई नहीं देता, बल्कि राहुल के फैसले की बात करता है.
गुटबंदी पर अंकुश के लिए क्या किया गया?
खरगे एक अनुभवी और मझे हुए नेता हैं. लिहाजा बहुत ही संजीदगी से अपना काम करते हैं, लेकिन हरियाणा में हार पर पार्टी की रिपोर्ट में जो कारण आए हैं उससे साफ है कि राज्य इकाई पर पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व का कोई अंकुश नहीं है. खासतौर पर अगर राज्य विधान सभा चुनाव में पार्टी की राज्य इकाई गुटों में बंट कर चुनाव में उतर रही होती है तो केंद्रीय नेतृत्व ही पार्टी को एकजुट करके जीत सुनिश्चित करता है. लेकिन हरियाणा में एका के दिशा में पार्टी ने कोई प्रयास किए हों ऐसा नहीं दिखता. रिपो्र्ट में साफ तौर पर कहा गया है कि भूपेंद्र सिंह हुड्डा ही नहीं, दूसरे नेता भी क्षत्रप की भूमिका में थे. ऐसे क्षत्रप जो खुदमुख्तार हो कर काम कर रहे थे.
हारे हुए प्रत्याशियों ने क्या कहा?
हरियाणा में हार पर रिपोर्ट तैयार करने की जिम्मेदारी छत्तीसगढ़ के पूर्व सीएम भूपेश बघेल और राजस्थान के विधायक हरीश चौधरी को सौंपी गई थी. उन्होंने रिपोर्ट के लिए राज्य के चुनाव में उतरे प्रत्याशियों से बातचीत की और फीडबैक लिया. बताया जा रहा है कि चुनाव लड़ने वालों ने जो कुछ कहा उसके मुताबिक हार की बड़ी वजह अपने लिए टिकट चाहने वाली की बड़ी संख्या और प्रचार में कोआर्डिनेशन की कमी हार की सबसे बड़ी वजह रही. कहीं भी राज्य कांग्रेस कमेटी ने किसी तरह का कोआर्डिनेशन नहीं दिखाया.
फीडबैक देने वाले एक प्रत्याशी के मुताबिक उसने साफ कह दिया है कि एक रैली में राहुल गांधी के मंच पर होने के बाद भी हुड्डा ने उनके लिए वोट देने की अपील नहीं की. विरोधी पार्टियों ने इसे लेकर प्रचार कर दिया कि वे तो हुड्डा के कैंडिडेट ही नहीं है. उनका ये भी आरोप है कि हुड्डा के लोगों ने उनके लिए प्रचार नहीं किया. एक और हारे हुए प्रत्याशी के मुताबिक कुमारी सैलजा और रनदीप सिंह सुरजेवाला ने बहुत से लोगों को टिकट दिलाने का आश्वासन दे रखा था. टिकट न मिल पाने पर ऐसे लोगों की निराशा कांग्रेस के लिए खासी नुकसानदेह हुई. टिकट बांटे जाने के दौरान ही साफ तौर दिख गया था कि ज्यादातर टिकट पाने वाले हुड्डा समर्थक ही थे. रणदीप सिंह सुरजेवाला सिर्फ अपने बेटे को टिकट दिला पाए. जबकि सैलजा समर्थकों की हिस्सेदारी न के बराबर ही रही. हर ओर से यही कहा जा रहा था कि हुड्डा समर्थक ही का बोलबाला रहा.
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जब कांग्रेस अपनी ही रिपोर्ट में पार्टी में गुटबाजी और भीतरघात को हार की वजह मान रही है तो ये सवाल तो उठेगा ही कि इस भीतरघात को रोकने की जिम्मेदारी किसकी थी. क्या आलाकमान ये अपेक्षा कर रहा है कि क्षत्रप राज्य जीत कर उसे समर्पित कर देंगे. वोट की राजनीति में तो कम से कम ऐसा नहीं देखा गया है. पहले भी मध्य प्रदेश में शुक्ल बंधु, अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह, महाराष्ट्र में शरद पवार, राजस्थान में जगन्नाथ पहाड़िया, बिहार में जगन्नाथ मिश्रा, उत्तर प्रदेश में विश्वनाथ प्रताप सिंह, नारायण दत्त तिवारी जैसे दिग्गज थे. लेकिन उस दौर में पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व किसी को मौका नहीं देता था. जबकि राहुल गांधी के कांग्रेस में राजस्थान में अशोक गहलौत, सचिन पायलट का झगड़ा सबके सामने दिखा. मध्य प्रदेश में जब कमलनाथ और ज्योतिर्दित्य सिंधिया में तलवार खिंची तो राहुल गांधी कुछ नहीं कर सके. ज्योतिर्दित्य बीजेपी में चले गए. उस समय भी दिखा था कि आलाकमान में वो ताकत नहीं है. जी-23 बनाने वाले नेताओं ने भी अपनी ताकत दिखा ही दी थी. ये अलग बात है कि वे पार्टी तोड़ने की जगह पार्टी से अलग हो गए. पार्टी को सब कुछ राज्य इकाई पर डाल कर पल्ला झाड़ने की जगह अपनी भूमिका पर भी विचार करने की जरूरत है.
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FIRST PUBLISHED :
October 18, 2024, 12:42 IST