प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त को लाल किले से बोलते हुए 1960 में पाकिस्तान के साथ जवाहरलाल नेहरू के किए ‘सिंधु जल संधि’ (IWT) को अन्यायपूर्ण और एकतरफ़ा करार दिया. उन्होंने कहा कि इस संधि से भारत के किसानों को अकल्पनीय नुकसान हुआ. लेकिन क्या आपको पता है कि जब यह मुद्दा 1960 में संसद में उठा तो क्या हुआ था?
ज्यादातर सांसदों ने, यहां तक कि कांग्रेस नेताओं ने भी इस संधि की आलोचना की. लेकिन उनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया गया. सीएनएन-न्यूज़18 ने संसद के अभिलेखों में जाकर उस बहस का पूरा ब्यौरा पढ़ा.
सिंधु समझौते में पाकिस्तान को ज्यादा ही रियायत
30 नवंबर 1960 को लोकसभा में सिंधु जल संधि पर चर्चा हुई. यह चर्चा छोटी थी, लेकिन बहुत तीखी. इसने नेहरू सरकार और विपक्षी नेताओं के बीच गहरी खाई को उजागर कर दिया. नेहरू सरकार इस संधि को व्यावहारिक कूटनीति बता रही थी, लेकिन लगभग सभी दलों के सांसद, जिनमें कांग्रेस के कई नेता भी शामिल थे, मानते थे कि भारत ने पाकिस्तान को बहुत ज़्यादा रियायत दे दी.
यह संधि संसद या विपक्षी नेताओं से कोई राय लिए बिना ही की गई थी. जब तक संसद में इस पर चर्चा हुई, तब तक संधि पर मुहर लग चुकी थी.
यह नेहरू के करियर की सबसे कड़ी आलोचनाओं में से एक थी. लगभग हर वक्ता ने संधि को अनुचित, आत्मसमर्पण या यहां तक कि ‘दूसरा बंटवारा’ कहा. तब बलरामपुर से युवा सांसद अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे खतरनाक रियायत करार देते हुए कहा कि इससे स्थायी दोस्ती कभी नहीं बनेगी.
यह संधि 19 सितंबर 1960 को कराची में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के सैन्य शासक राष्ट्रपति अयूब खान के बीच हुई थी, जिसमें विश्व बैंक गारंटर था.
दस सांसदों ने इस पर प्रस्ताव रखा. सिर्फ दो घंटे की बहस का समय मिला. शुरू से ही यह साफ था कि संसद को इस संधि को बनाने में कोई भूमिका नहीं दी गई थी, सिर्फ पहले से तय फैसले पर प्रतिक्रिया देने का मौका था.
इसकी पृष्ठभूमि यह थी कि 10 साल से भी अधिक समय से चली आ रही बातचीत के बाद 1960 में यह संधि हुई. इसके तहत तीन पूर्वी नदियां- रावी, ब्यास और सतलुज- भारत को मिलीं और तीन पश्चिमी नदियां यानी सिंधु, झेलम और चिनाब पाकिस्तान को. लेकिन भारत ने पाकिस्तान को प्रतिस्थापन परियोजनाओं के लिए 83 करोड़ रुपये (पाउंड स्ट्रर्लिंग में) देने पर सहमति जताई.
कागज़ पर नेहरू ने इसे सहयोग का आदर्श बताया, लेकिन सांसदों की प्रतिक्रिया निराशा से भरी थी. संसद में बहस की शुरुआत ढेंकानाल के सांसद सुरेंद्र मोहंती ने की. उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री खुद मौजूद हों क्योंकि हस्ताक्षर उन्होंने किए हैं, वही बता सकते हैं कि यह समझौता क्यों किया गया.
फिरोज़ाबाद से निर्दलीय सांसद ब्रज राज सिंह ने कहा कि यह संधि देश में ‘गंभीर चिंता’ पैदा कर रही है. वहीं जल संसाधन मंत्री हफ़ीज़ मोहम्मद इब्राहीम ने आश्वासन दिया कि प्रधानमंत्री बोलेंगे. इसके बाद आलोचना का दौर शुरू हुआ.
कांग्रेस सांसदों ने भी खूब की आलोचना
इस दौरान कांग्रेस सांसदों ने भी नेहरू पर निशाना साधा. राजस्थान से कांग्रेस सांसद हरीश चंद्र माथुर ने इसे पाकिस्तान के पक्ष में और भारत के नुकसान का समझौता बताया. उन्होंने कहा, ‘अपने ही लोगों की कीमत पर अधिक उदारता दिखाना कूटनीति नहीं है.’ उन्होंने चेतावनी दी कि राजस्थान को हर साल 70-80 करोड़ रुपये का नुकसान होगा क्योंकि पाँच मिलियन एकड़-फुट पानी खो जाएगा. उन्होंने कहा, ‘इस संधि में राजस्थान के साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ है.’
उन्होंने आगे कहा कि 1948 से भारत कदम-दर-कदम पीछे हटता गया और पाकिस्तान दबाव डालता रहा. उन्होंने यह भी कहा कि पानी की संधि को कश्मीर से जोड़ना चाहिए था- अगर पाकिस्तान को पानी की गारंटी मिल गई, तो कश्मीर समस्या खत्म हो जानी चाहिए थी, लेकिन ऐसा हुआ क्या?
कांग्रेस के ही एक और वरिष्ठ नेता अशोक मेहता ने इस संधि को ‘दूसरा बंटवारा’ बताया. उन्होंने कहा, ‘हम 1947 के घावों को फिर से कुरेद रहे हैं और यह सब हमारे प्रधानमंत्री के हस्ताक्षर से किया जा रहा है.’
उन्होंने कहा कि 12 साल की बातचीत के बाद भारत ऐसी शर्तों पर पहुंचा ‘जिन्हें न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता.’ उन्होंने बताया कि पाकिस्तान को 80% पानी दिया गया और भारत को केवल 20%, जबकि पहले का प्रस्ताव 75:25 का था. उन्होंने चेतावनी दी कि इतनी जल्दीबाज़ी में संधि करना ग़लती है.
संसद में गूंजी वाजपेयी की हुंकार
बंगाल से कांग्रेस सांसद एसी गुहा ने भी इस पर आपत्ति जताई. उन्होंने कहा कि भारत के पास 2.6 करोड़ एकड़ ज़मीन थी, लेकिन सिंचाई सिर्फ़ 19% थी. वहीं पाकिस्तान की 3.9 करोड़ एकड़ ज़मीन में 54% सिंचाई थी. उन्होंने कहा, ‘ज़मीन के हिसाब से भारत को 40% पानी मिलना चाहिए था, लेकिन हमें सिर्फ़ 20% मिला.’ उन्होंने पाकिस्तान को 83 करोड़ रुपये देने को ‘सबसे बड़ी मूर्खता’ बताया. इसके बाद युवा अटल बिहारी वाजपेयी बोले. उन्होंने कहा कि सरकार पहले घोषणा कर चुकी थी कि 1962 तक पाकिस्तान का पानी रोका जाएगा, तो फिर अब स्थायी अधिकार क्यों दिए जा रहे हैं? उन्होंने कहा, ‘या तो वह घोषणा ग़लत थी या यह संधि ग़लत है.’
उन्होंने कहा कि संसद को विश्वास में लिए बिना संधि की गई है. उन्होंने नेहरू से पूछा, ‘इतनी रियायत क्यों दी गई? यह दोस्ती का तरीका नहीं है. दोस्ती केवल न्याय पर आधारित हो सकती है, तुष्टिकरण पर नहीं.’
निर्दलीय सांसद ब्रज राज सिंह ने भी सरकार पर हमला बोला और कहा कि भारत का गर्व बेच दिया गया. कम्युनिस्ट सांसद केटीके तंगमणि ने भी कहा कि संसद 9 सितंबर तक सत्र में थी और 19 सितंबर को संधि हुई, तो संसद को विश्वास में क्यों नहीं लिया गया? उन्होंने इसे एकतरफ़ा रियायत बताया.
सिंधु समझौते पर क्या बोले थे नेहरू?
आख़िरकार नेहरू बोले. उनका लहजा थका हुआ और उदास था, लेकिन वे दृढ़ रहे. उन्होंने कहा कि यह भारत के लिए ‘अच्छी संधि’ है. उन्होंने ‘दूसरा बंटवारा’ कहने वालों को झिड़का और कहा, ‘एक बाल्टी पानी का बंटवारा कैसा बंटवारा है?’
उन्होंने कहा कि अंतरराष्ट्रीय संधियों में हर कदम पर संसद की अनुमति लेना संभव नहीं है. उन्होंने स्वीकार किया कि पाकिस्तान ने शुरू में 300 करोड़ रुपये मांगे थे, लेकिन भारत ने 83 करोड़ रुपये में समझौता किया. उन्होंने कहा, ‘हमने शांति खरीदी है.’
नेहरू ने चेतावनी दी कि अगर यह संधि न होती तो पश्चिम पंजाब वीरान हो जाता और उपमहाद्वीप अस्थिर हो जाता. उन्होंने व्यापक दृष्टिकोण अपनाने की अपील की.
क्या रहा बहस का नतीजा?
लेकिन उन्हें समय की कमी थी. वे जापान के युवराज से मिलने चले गए और सदन असंतुष्ट रह गया.
नेहरू के जवाब के बाद भी सांसदों को संतोष नहीं हुआ. वाजपेयी ने टिप्पणी की कि अधिकांश सदस्य अब भी नहीं समझ पाए कि भारत ने ऐसी संधि क्यों की.
बहस बिना वोट के ख़त्म हो गई, क्योंकि संधि पहले ही पक्की हो चुकी थी. लेकिन इस बहस ने दिखा दिया कि विपक्ष ही नहीं बल्कि सत्ता पक्ष के सांसद भी नेहरू से असहमत थे. नेहरू अकेले पड़ गए थे, जबकि पूरा सदन राष्ट्रीय हित और पाकिस्तान पर अविश्वास की भाषा में बोल रहा था.
युवा नेताओं जैसे वाजपेयी के लिए यह वह मंच था, जहाँ से उन्होंने यह तर्क गढ़ा कि नेहरू बहुत नरम थे, बहुत आदर्शवादी थे और भारत के हितों की बलि चढ़ा देते थे.
अधिकांश सांसदों ने चेतावनी दी थी कि यह संधि आत्मसमर्पण है, ‘दूसरा बंटवारा’ है और तुष्टिकरण है. लेकिन नेहरू ने कहा कि यह व्यवहारिक और आवश्यक है और लंबे समय में भारत के लिए अच्छा है.
आखिरकार 65 साल बाद पहलगाम आतंकी हमले के बाद नरेंद्र मोदी ने इस संधि को निलंबित करने का फ़ैसला किया.
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