Last Updated:August 19, 2025, 08:45 IST
पश्चिम बंगाल में वोटर लिस्ट के स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) को लेकर बीजेपी और तृणमूल आमने-सामने हैं. बीजेपी "नो SIR, नो वोट" की मांग कर रही है, जबकि TMC इसे NRC जैसी कवायद बताकर विरोध कर रही है. वहीं, चुनाव आयो...और पढ़ें

पश्चिम बंगाल में मतदाता सूची के स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) को लेकर राजनीति गरमा गई है. बीजेपी ने “नो SIR, नो वोट” का नारा देते हुए अभियान शुरू कर दिया है, जबकि तृणमूल कांग्रेस (TMC) इस अभ्यास पर सवाल खड़े कर रही है. ऐसे में चुनाव आयोग (ECI) पर दो तरफा दबाव है. एक ओर पारदर्शी वोटर लिस्ट बनाने की मांग, तो दूसरी ओर बड़े पैमाने पर नाम कटने की आशंकाएं.
SIR क्या है और क्यों जरूरी है?
SIR का मतलब है वोटर लिस्ट की घर-घर जाकर गहन जांच. इसमें पुराने रिकॉर्ड का मिलान किया जाता है, डुप्लीकेट नाम हटाए जाते हैं, मृत या दूसरी जगह शिफ्ट हो चुके लोगों के नाम काटे जाते हैं और नए योग्य मतदाताओं के नाम जोड़े जाते हैं. चुनाव आयोग का कहना है कि इस प्रक्रिया से कोई भी योग्य मतदाता छूटे नहीं और कोई भी अयोग्य व्यक्ति लिस्ट में शामिल न रहे.
बिहार का अनुभव: हटाए गए 65 लाख नाम
SIR की शुरुआत सबसे पहले बिहार में हुई. वहां यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा. अदालत के निर्देश के बाद मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी ने पहले चरण में हटाए गए 65 लाख नामों की लिस्ट और हटाने के कारण सार्वजनिक किए. इससे पारदर्शिता तो बढ़ी, लेकिन राजनीति और तेज हो गई. विपक्ष ने आरोप लगाया कि इससे कई संवेदनशील वर्गों के मतदाता प्रभावित हुए.
इससे यह साफ संदेश गया कि अगर प्रक्रिया पारदर्शी और कारण-सम्पन्न नहीं होगी, तो मताधिकार छीनने के आरोप लग सकते हैं और अदालत का दखल भी बढ़ सकता है.
बंगाल में BJP बनाम TMC
बीजेपी नेता शुभेंदु अधिकारी और प्रदेश अध्यक्ष समिक भट्टाचार्य का कहना है कि जब तक SIR नहीं होता, तब तक चुनाव नहीं होना चाहिए. बीजेपी का आरोप है कि TMC मृत लोगों, डुप्लीकेट वोटरों और अवैध प्रवासियों के नाम बनाए रखना चाहती है.
वहीं, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी SIR को “NRC जैसी कवायद” बता रही हैं. उनका कहना है कि इससे गरीब और हाशिये पर मौजूद लोगों पर दस्तावेजों का बोझ बढ़ेगा. ममता ने लोगों को सलाह दी है कि बिना पूरी जानकारी किसी भी फॉर्म पर हस्ताक्षर न करें.
चुनाव आयोग का स्टैंड
ECI का कहना है कि बंगाल में SIR की तारीखें उपयुक्त समय पर घोषित की जाएंगी. अभी केवल 2002 के SIR डेटा को वेबसाइट पर डालने और रेफरेंस लिस्ट बनाने का काम हो रहा है.
2002 का रेफरेंस क्यों अहम है?
बंगाल में पिछली बार SIR साल 2002 में हुआ था. हाल में चुनाव आयोग ने उस समय की वोटर लिस्ट को वेबसाइट पर डालना शुरू किया है, ताकि उसे नए संशोधन के लिए आधार बनाया जा सके. लेकिन कई सीटों और बूथ के रिकॉर्ड अधूरे या खराब मिल रहे हैं. इसलिए अब 2003 के रिकॉर्ड से मिलान करने जैसी विकल्प योजना पर विचार किया जा रहा है. हालांकि, इससे प्रक्रिया और मुश्किल हो गई है.
कानूनी कसौटी और मतदाता की सुरक्षा
ECI को अनुच्छेद 324 और RPA 1950 की धारा 21 के तहत वोटर लिस्ट संशोधन का अधिकार है. इसके तहत नोटिस भेजना, कारण बताना, दावों और आपत्तियों की सुनवाई करना और अपील का अधिकार देना अनिवार्य है. यही प्रक्रिया मतदाता के अधिकारों की सुरक्षा करती है.
बिहार में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद जब हटाए गए नामों और कारणों की सूची सार्वजनिक हुई, तब पारदर्शिता बढ़ी. यही स्टैंडर्ड अगर बंगाल में भी लागू होगा तो लोगों का भरोसा मजबूत होगा.
चुनाव आयोग क्यों फंसा दिख रहा है?
दरअसल, चुनाव आयोग पर अब दो तरफा दबाव है. एक ओर बीजेपी का “नो SIR, नो वोट” अभियान, तो दूसरी ओर TMC का “SIR से मतदाताओं के अधिकार छिनेंगे” वाला नैरेटिव तैयार हो रहा है. वहीं, 2002 के रिकॉर्ड का डिजिटलीकरण, हजारों कर्मचारियों की ट्रेनिंग, घर-घर सर्वे और लाखों आपत्तियों की सुनवाई – यह सब समय पर करना बड़ी चुनौती है.
बिहार का उदाहरण दिखाता है कि अगर पारदर्शिता नहीं होगी तो अदालत तुरंत हस्तक्षेप करेगी. इसलिए यही स्टैंडर्ड बंगाल में भी लागू करना होगा.
किसे होगा फायदा और किसे नुकसान?
BJP को लगता है कि अगर बंगाल में मृत और फर्जी वोटर्स के नाम हटते हैं, तो “क्लीन वोटर लिस्ट” से असली जनादेश सामने आएगा. जबकि, ममता बनर्जी इसे NRC जैसा मुद्दा बनाकर गरीबों पर दस्तावेजों का बोझ बढ़ाने जैसा नैरेटिव तैयार करने में लगी हैं. वहीं विपक्ष बिहार की तरह, बड़े पैमाने पर कटौती को राजनीतिक चाल बताते हुए चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठा सकते हैं.
क्या है आगे का रास्ता?
– स्पष्ट टाइमलाइन और नियम: घर-घर जांच, नोटिस, सुनवाई और अपील की प्रक्रिया को साफ तरीके से सार्वजनिक करना चाहिए.
– डिलीशन लिस्ट पब्लिक: बिहार की तरह रोजाना या साप्ताहिक आधार पर कितने नाम हटे और क्यों – यह जानकारी सार्वजनिक होनी चाहिए.
– 2002 रिकॉर्ड की कमी पूरी करना: जहां पुराना डेटा नहीं है, वहां 2003 या अन्य वेलिड सोर्स का इस्तेमाल होना चाहिए.
– मतदाताओं के लिए हेल्पलाइन: लोगों को साफ बताया जाए कि अगर उनका नाम गलती से कट गया तो वे कैसे अपील कर सकते हैं.
– राजनीतिक शांति: पार्टियों को आरोप-प्रत्यारोप छोड़कर प्रमाण आधारित आपत्तियां पेश करनी चाहिए.
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First Published :
August 19, 2025, 08:45 IST