केंद्र सरकार ने देशभर में हिंदी को लेकर अभियान छेड़ा हुआ है लेकिन बीजेपी शासित महाराष्ट्र ने ही स्कूलों में हिंदी पर तीसरी भाषा के तौर पर रोक लगा दी है. हंगामे, विवाद और विरोध प्रदर्शन के बाद महाराष्ट्र सरकार ने स्कूलों में हिंदी को तीसरी अनिवार्य भाषा बनाने का फैसला रद्द कर दिया. इस पर राज्य में तीखा भाषाई और राजनीतिक विवाद छिड़ गया. ये पहली बार नहीं है कि जब हिंदी को लेकर किसी राज्य में भाषाई विवाद इतना गहराया हो. दक्षिण, पूर्वी राज्य पहले से हिंदी थोपे जाने का विरोध करते रहे हैं. अब इसमें महाराष्ट्र भी जुड़ गया. वैसे भाषा देश में संवेदनशील मसला है. केवल भारत ही नहीं दुनियाभर में ये अक्सर देखने में आया है.
महाराष्ट्र सरकार ने 16 अप्रैल 2025 को एक आदेश जारी किया था, जिसमें कक्षा 1 से 5 तक के स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य तीसरी भाषा के रूप में लागू करने का निर्णय लिया गया था. विपक्षी दलों (शिवसेना, एमएनएस, कांग्रेस) और मराठी संगठनों ने इस नीति को ‘मराठी अस्मिता’ (पहचान) पर हमला माना. उनका तर्क था कि हिंदी को अनिवार्य बनाना मराठी भाषा और संस्कृति को कमजोर कर सकता है.
विरोधियों ने इसे “हिंदी थोपने की कोशिश” करार दिया. उनका कहना था कि यह नीति स्थानीय भाषाओं को पीछे धकेलने और हिंदी को बढ़ावा देने का प्रयास है, जिससे क्षेत्रीय विविधता को नुकसान होगा. मराठी समर्थकों और राजनीतिक दलों के भारी विरोध के बाद सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा. मुंबई में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए. 5 जुलाई को संयुक्त रैली की घोषणा की गई.
सवाल – महाराष्ट्र को हिंदी भाषा को लेकर क्यों पैर वापस खींचने पड़े. अपने ही फैसले पर रोक लगानी पड़ी?
– महाराष्ट्र सरकार ने स्कूलों में हिंदी को तीसरी भाषा के तौर पर लागू करने का फैसला किया था. इसका तीखा विरोध हुआ. सरकार से जुड़ी समितियों की रिपोर्ट भी अनुकूल नहीं थी. मराठी भाषा सलाहकार समिति ने कहा कि प्राथमिक स्तर पर तीसरी भाषा की अनिवार्यता छात्रों के मनोवैज्ञानिक विकास और सांस्कृतिक पहचान के लिए नुकसानदेह हो सकती है.
सवाल – तो क्या अब महाराष्ट्र के स्कूलों में हिंदी भाषा नहीं पढ़ाई जाएगी?
– अब हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में तब पढ़ाई जाएगा, जबकि किसी कक्षा में 20 या अधिक छात्र किसी अन्य भारतीय भाषा के रूप में हिंदी का विकल्प चुनते हैं, तो उन्हें वह विकल्प मिलेगा.
सवाल – आमतौर कई राज्यों में भाषा को लेकर क्यों विवाद होता रहा है?
– राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) जैसी योजनाएं अक्सर सभी राज्यों में एक जैसी लागू करने की कोशिश करती हैं, जिससे स्थानीय असंतोष बढ़ता है. क्षेत्रीय भाषाएं स्थानीय पहचान और गौरव का प्रतीक होती हैं. किसी अन्य भाषा की अनिवार्यता को स्थानीय संस्कृति पर खतरे के रूप में देखा जाता है.भारत में सैकड़ों भाषाएं-बोलियां हैं; एक भाषा को ऊपर रखना अन्य भाषाओं के लिए चिंता का विषय बनता है. तमिलनाडु, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में पहले भी हिंदी विरोधी आंदोलन हो चुके हैं. यह संवेदनशील मुद्दा है.
सवाल – महाराष्ट्र में तो अब तक हिंदी का विरोध नहीं था, ऐसा पहली बार हुआ है?
– अब तक महाराष्ट्र में हिंदी के प्रति आमतौर पर विरोध नहीं था, क्योंकि हिंदी एक वैकल्पिक या अतिरिक्त भाषा के तौर पर पढ़ाई जाती थी. उस पर कोई अनिवार्यता नहीं थी लेकिन 2025 में सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP 2020) के तहत मराठी और अंग्रेजी के साथ हिंदी को भी कक्षा 1 से 5 तक अनिवार्य करने का आदेश जारी किया.
सवाल – क्या इसका असर मुंबई जैसे महानगरों की आम बोलचाल की भाषा पर पड़ेगा, जिसमें ज्यादातर लोग हिंदी बोलते हैं और हिंदी भाषी राज्यों से वहां जाकर काम करते हैं?
– अभी तक तो ऐसा नहीं है. लेकिन दक्षिण भारत के ज्यादातर राज्यों में अब आम बोलचाल में भी हिंदी बोलने का विरोध होने लगा है. अगर इस मसले ने सियासी रंग लिया तो ऐसा हो भी सकता है.
सवाल – भारत का संविधान कितनी भाषाओं को मान्यता देता है?
– भारत में संविधान की आठवीं अनुसूची में अभी 22 भाषाएं हैं. वैसे देश में 2011 की जनगणना के अनुसार कुल 19,500 मातृभाषाए मानी गई हैं. भारत शायद दुनिया का अकेला देश है जहां हर 100-150 किलोमीटर पर भाषा, बोली और लिपि बदल जाती है.
जब 1947 के बाद राष्ट्रीय भाषा के चयन की बात उठी, तो हिंदी को प्रस्तावित किया गया. इसका कड़ा विरोध दक्षिण भारत (खासकर तमिलनाडु) और पूर्वी भारत से हुआ, क्योंकि इनकी अपनी समृद्ध भाषाई विरासत थी (जैसे तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़). उन्हें डर था कि हिंदी थोपे जाने से उनकी भाषाएँ और पहचान दब जाएगी.
सवाल – संविधान में हिंदी को राजभाषा बनाने का फैसला हुआ था, उसका क्या हुआ?
– संविधान सभा में लंबी बहस के बाद 1950 में फैसला हुआ कि भारत की “राजभाषा” हिंदी होगी. अंग्रेज़ी अगले 15 साल (1965 तक) सह-राजभाषा रहेगी.
1965 में जब हिंदी को अनिवार्य करने की योजना बनी, तो तमिलनाडु समेत दक्षिण भारत में उग्र आंदोलन हुए. वहां के लोगों को लगा कि यह उनकी संस्कृति, पहचान और रोज़गार के अवसरों पर आघात करेगा. तमिलनाडु में द्रविड़ आंदोलन (Periyar और DMK के नेतृत्व में) इस विरोध का प्रतीक बना.
तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़ जैसी भाषाएं हजारों साल पुरानी और स्वतंत्र साहित्यिक परंपरा वाली हैं. उन्हें डर है कि हिंदी थोपे जाने से उनकी संस्कृति पीछे छूट जाएगी.
सवाल – फिलहाल संविधान में हिंदी का दर्जा क्या है. क्या वो राजभाषा है या राष्ट्रभाषा?
– फिलहाल हिंदी का दर्जा भारत में “राजभाषा” का है, न कि “राष्ट्रीय भाषा” का. संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार, हिंदी को देवनागरी लिपि में भारत की आधिकारिक (राजभाषा) भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त है. इसके साथ ही अंग्रेज़ी को भी सह-राजभाषा का दर्जा मिला हुआ है.
संविधान की आठवीं अनुसूची में हिंदी समेत कुल 22 भाषाओं को “अनुसूचित भाषाओं” के रूप में सूचीबद्ध किया गया है, जिन्हें आधिकारिक कार्यों में मान्यता प्राप्त है.
अनुच्छेद 351 के तहत, केंद्र सरकार को हिंदी के प्रसार और विकास को बढ़ावा देने की जिम्मेदारी दी गई है, ताकि यह पूरे भारत में संपर्क भाषा के रूप में विकसित हो सके. संविधान ने किसी भी भाषा को “राष्ट्रीय भाषा” घोषित नहीं किया है; हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों ही भारत सरकार के स्तर पर आधिकारिक भाषा हैं.
सवाल – क्या राज्यों के पास ये अधिकार है कि वो अपनी आधिकारिक भाषा खुद तय करें?
– हां, राज्यों के पास ये अधिकार है. अनुच्छेद 345 के अनुसार, राज्य अपनी आधिकारिक भाषा खुद तय कर सकते हैं. यह हिंदी, अंग्रेज़ी या कोई भी क्षेत्रीय भाषा हो सकती है. कई राज्यों में हिंदी प्रमुख राजभाषा है, लेकिन दक्षिण और पूर्वोत्तर के राज्यों में क्षेत्रीय भाषाओं को प्राथमिकता दी जाती है.
सवाल – यूनेस्को में हिंदी कार्यकारी भाषा है लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ में क्यों नहीं?
– अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी यूनेस्को की नौ कार्यकारी भाषाओं में एक है. भारत सरकार संयुक्त राष्ट्र में भी हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने के लिए प्रयासरत है.
सवाल – भारत ही नहीं दुनियाभर में भाषा संवेदनशील मसला रहा है?
– हां, ये सही है. दुनियाभर में अक्सर भाषाओं को लेकर टकराव होता रहा है. कई देशों में जहां एक राष्ट्रीय भाषा थोपी गई, वहां कई भाषाएं हाशिए पर चली गईं. जैसे फ्रांस में ब्रेटन और ओक्सिटान भाषाएं हाशिए पर चली गईं, कभी ये खूब बोली जाती थीं. स्पेन में कैटलन और बास्क भाषाएं फ्रेंको शासन के समय से प्रतिबंधित हैं.
चीन में तिब्बती और उइगुर भाषाओं का दमन किया गया. श्रीलंका में 1956 में सिंहली को राष्ट्रीय भाषा घोषित करके जब तमिलों के साथ भेदभाव किया गया तो लिट्टे आंदोलन उठ खड़ा हुआ.
भाषा का इस्तेमाल अक्सर सत्ता स्थापित करने और वर्चस्व दिखाने के लिए हुआ है. जब कोई शासन अपनी भाषा थोपता है, तो यह स्थानीय लोगों के लिए आत्मसम्मान और अधिकारों की लड़ाई बन जाती है.