Last Updated:January 20, 2025, 09:37 IST
Father Son Maintenance Dispute: केंद्र सरकार ने बुजुर्ग माता-पिता को बेटे और बहू के खिलाफ अत्याचार से बचाने का इंतजार कर लिया है. इसे लेकर कानून में बदलाव करने की तैयारी की जा रही है. देश की विभिन्न अदालतों की तरफ से लगातार इस संबंध...और पढ़ें
केंद्र सरकार ने तैयार किया पूरा प्लान. (File Photo)
नई दिल्ली. अगर मां-बेटे के बीच संपत्ति या किसी अन्य चीज का लेकर विवाद हो जाए तो मौजूदा व्यवस्था के तहत कोर्ट में दोनों ही पक्षों को वकील के साथ पेश होने की इजाजत नहीं है. सूत्रों के मुताबिक केंद्र सरकार उपेक्षित माता-पिता के लिए भरण-पोषण सुनिश्चित करने के लिए नियम में बदलाव करने की योजना बना रही है. केंद्र सरकार मुकदमे की कार्यवाही के दौरान माता-पिता को वकीलों लेकर कोर्ट में होने की इजाजत देने पर विचार कर रहा है. टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार “माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम” के तहत वकीलों को अदालतों के समक्ष वरिष्ठ नागरिकों के मामलों की पैरवरी करन की इजाजत देने पर विचार कर रही है. ये उन मामलों में लागू होगा जिसमें बुजुर्गों ने अपने बच्चों के खिलाफ मामले दर्ज किए गए हैं. हालांकि उनके लिए कानूनी पेशेवरों के इस्तेमाल पर प्रतिबंध बरकरार रखा जाएगा.
सूत्रों के हवाले से कहा गया कि यह बदलाव कोर्ट में सुनवाई के दौरान बुजुर्गों को होने वाली दिक्कत के देखते हुए किया जा रहा है. वरिष्ठ नागरिकों को कोर्ट के समक्ष अपना मामला स्पष्ट करने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है, जिससे वे उपेक्षा और दुर्व्यवहार को साबित करने के लिए ठीक से तर्क नहीं दे पाते. ऐसा महसूस किया जाता है कि वकीलों को नियुक्त करने से बुजुर्गों को अपने दावों को लड़ने और भरण-पोषण प्राप्त करने में मदद मिलेगी.
एक्ट की धारा-17 क्या कहती है?
अधिनियम की धारा 17 में कहा गया है, “किसी भी कानून में निहित किसी भी बात के बावजूद, अदालतों के समक्ष कार्यवाही में किसी भी पक्ष का प्रतिनिधित्व किसी कानूनी व्यवसायी द्वारा नहीं किया जाएगा.” सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय का प्रस्ताव यदि पास होता है, तो अधिनियम के प्रावधानों से एक बड़ा बदलाव होगा. साल 2007 में कानून तैयार होने पर सरकार के भीतर और हितधारकों के साथ बहुत विचार-विमर्श के बाद वकीलों को इससे बाहर रखा गया था.
क्यों वकीलों को किया गया था दूर?
इस तरह के रुख के पीछे मकसद यह था कि यह अधिनियम बुजुर्गों को उनके बच्चों द्वारा उपेक्षा और दुर्व्यवहार से लड़ने में सक्षम बनाने के लिए बनाया जा रहा था, जो पीढ़ियों से परिवारों में होने वाली समस्याओं को दूर करने के लिए अपनी तरह का पहला समर्पित कानून था. लेकिन यह महसूस किया गया कि इस तरह के प्रावधान से तभी परिणाम मिलेंगे जब मुकदमे तेजी से और बिना किसी कानूनी पैंतरेबाज़ी के होंगे, जो अदालती प्रक्रियाओं का हिस्सा हैं.
मौजूदा कानून में सुलह पर जोर
कानून में कहा गया है कि रखरखाव के लिए आवेदन का निपटारा 90 दिनों के भीतर किया जाना चाहिए. वकीलों पर प्रतिबंध विशेष रूप से पुरानी पीढ़ी की मदद करने के लिए था, जबकि इस प्रक्रिया का जोर दंडात्मक प्रावधानों के बजाय सुलह पर रहा है, जो कानून में भी दिए गए हैं. इसलिए, जबकि भविष्य में वकीलों को कार्यवाही में भाग लेने की अनुमति दी जा सकती है, फिर भी यह वरिष्ठ नागरिकों की मदद करने के लिए होगा.
क्यों बदला जा रहा नियम?
17 साल से अधिक समय से, केंद्र पंजाब और हरियाणा और मद्रास के हाईकोर्ट सहित विभिन्न वर्गों के आग्रह के बावजूद “कोई वकील नहीं” के रुख पर अड़ा हुआ है. 2016 में मंत्रालय द्वारा गठित एक पैनल ने कानूनी चिकित्सकों पर प्रतिबंध हटाने के सुझाव को यह तर्क देकर खारिज कर दिया कि इस प्रावधान से वरिष्ठ नागरिकों को त्वरित और लागत प्रभावी न्याय दिलाने में मदद मिलती है. अगस्त 2016 में इस मुद्दे पर एक “राष्ट्रीय परामर्श” में, बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने इस धारणा को “पुरानी” करार दिया कि वकीलों की भागीदारी त्वरित न्याय को प्रभावित करती है, लेकिन न्यायाधिकरणों में वकीलों को अनुमति देने की इसकी याचिका को राज्यों, गैर सरकारी संगठनों और विधि आयोग से भी कड़ा विरोध मिला.
First Published :
January 20, 2025, 09:37 IST