शौरी ने खड़े किए सावरकर पर सवाल, कहा- ना स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ना गौरक्षक

1 month ago

Last Updated:March 06, 2025, 13:20 IST

Vinayak Damodar Savarkar: पूर्व संपादक और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी ने अपनी नई किताब 'द न्यू आइकॉन: सावरकर एंड द फैक्ट्स' में विनायक दामोदर सावरकर पर सवाल उठाए हैं. उन्होंने सावरकर के विचारों और ऐतिहासिक ...और पढ़ें

शौरी ने खड़े किए सावरकर पर सवाल, कहा- ना स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ना गौरक्षक

अरुण शौरी ने अपनी नवीनतम पुस्तक, द न्यू आइकॉन: सावरकर एंड द फैक्ट्स में विनायक दामोदर सावरकर की एक अलग तस्वीर पेश की है,

हाइलाइट्स

अरुण शौरी ने सावरकर के ऐतिहासिक दृष्टिकोण की समीक्षा कीशौरी ने अपनी किताब में लिखा कि सावरकर ने गाय को पूज्य नहीं मानासावरकर ने स्वतंत्रता संग्राम में गांधी के योगदान का जिक्र नहीं किया

Vinayak Damodar Savarkar: पूर्व पत्रकार और अटल सरकार में केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी की सावरकर पर लिखी किताब सनसनी मचाने वाली है. इस किताब में उन्होंने रिसर्च के जरिए साफ कहा है कि ना तो सावरकर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे और ना ही गाय उनके लिए पूज्य या पवित्र थी. शौरी की इस किताब ने सावरकर पर एक नहीं ना जाने कितने ही सवाल उठाए हैं.  

विनायक दामोदर सावरकर भारतीय इतिहास की वो शख्सियत हैं, जो मौजूदा हालात में हमेशा विवादों में रहते हैं. इंडियन एक्सप्रेस के पूर्व संपादक और अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे अरुण शौरी ने अपनी नई किताब ‘द न्यू आइकॉन: सावरकर एंड द फैक्ट्स’ में विनायक दामोदर सावरकर की (1883-1966) एक अलग तस्वीर पेश की है. इस किताब में उन्होंने सावरकर के विचारों और उनके ऐतिहासिक दृष्टिकोण की समीक्षा की है.

अरुण शौरी ने लिखा है कि सावरकर गाय को पूज्य जानवर नहीं मानते थे. उन्होंने कहा कि सावरकर ने गाय को भैंस, घोड़े या कुत्ते की तरह ही एक पालतू और उपयोगी जानवर माना. उन्होंने लिखा कि सावरकर ने अपनी किताब में भारत को आजाद कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले लोगों में महात्मा गांधी का नाम शामिल नहीं किया. किताब में सावरकर के लिखे और कहे गए शब्दों के आधार पर उनके विचारों का विश्लेषण किया गया है. अरुण शौरी की इस किताब के बारे में अंग्रेजी अखबार ‘द हिंदू’ ने उनसे विस्तार से बात की. पेश हैं अरुण शौरी के ‘द हिंदू’ को दिए गए साक्षात्कार के मुख्य अंश…

सावरकर को महिमामंडित करने को लेकर दक्षिणपंथी उत्साह के पीछे क्या वजह हो सकती है?अरुण शौरी का मानना है कि इसके पीछे तीन प्रमुख कारण हैं. पहला गांधी जी की छवि को कमजोर करने की कोशिश. क्योंकि गांधी जी का सत्य, अहिंसा और धर्मों के बीच समानता की बात करना कुछ लोगों के लिए असुविधाजनक है. दूसरी वजह है नायकों की कमी. भगत सिंह को अपनाना मुश्किल है क्योंकि वे मार्क्सवादी और नास्तिक थे. इसी तरह नेताजी सुभाष चंद्र बोस को स्वीकार करना भी कठिन है क्योंकि वे धर्मनिरपेक्षता के कट्टर समर्थक थे. ऐसे में सावरकर को स्वतंत्रता संग्राम का नायक बनाने की कोशिश की गई. तीसरी वजह है स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी की कमी. कुछ समूह इस तथ्य से अवगत हैं कि वे स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा नहीं थे. इसलिए वे ऐसे व्यक्तित्व को महान स्वतंत्रता सेनानी घोषित कर, स्वयं को आजादी की लड़ाई से जोड़ने की कोशिश करते हैं. अधिकांश लोगों ने सावरकर के लेखन को पढ़ा नहीं है, इसलिए तथ्यों की पड़ताल किए बिना उनकी छवि बनाई जा रही है.

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क्या आप सावरकर के ‘चित्रगुप्त’ और फिर ‘वीर’ बनने के परिवर्तन को समझा सकते हैं?
मैं केवल सावरकर सदन की एक किताब के प्रकाशक के कहे अनुसार ही बता सकता हूं. उनका कहना है कि चित्रगुप्त निश्चित रूप से स्वयं सावरकर ही थे. मैंने उन कुछ अंशों को उद्धृत किया है जिनसे पता चलता है कि सावरकर वास्तव में प्रथम पुरुष  के रूप में बात कर रहे हैं, चित्रगुप्त के रूप में लिख रहे हैं. लेकिन जिस व्यक्ति ने वास्तव में इस पर बहुत काम किया है, जिसने कई और कारण दिए हैं, वह लेखक विनायक चतुर्वेदी हैं, जो एक अमेरिकी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं.

आप लिखते हैं कि सावरकर के बारे में सार्वजनिक डोमेन में ऐसी सामग्री है जो जरूरी नहीं कि उन्हें एक नायक के रूप में पेश करे. उन माफी पत्रों या इस तथ्य से परे उनके बारे में कुछ नया दिखाना कितना मुश्किल था कि वह गाय के उपासक नहीं थे?
दया याचिकाओं से परे लॉर्ड लिनलिथगो के साथ वास्तविक पत्राचार और बैठकों के रिकॉर्ड की बात करते हैं. वे दिखाते हैं कि सावरकर कैसे, जैसा कि लिनलिथगो ने कहा, ‘भीख मांग रहे थे.’ ‘उन्होंने मुझसे भीख मांगी’, ये वे शब्द हैं जिनका उपयोग लिनलिथगो ने लंदन में भारत के राज्य सचिव को सावरकर और उनके बीच हुई बातचीत के संबंध में किया था. ये दस्तावेज इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी से प्राप्त किए जाने चाहिए थे. मेरे अच्छे दोस्त संजय सूरी ने ये पत्राचार हासिल किया. जब मैं अखबार में था तब संजय सूरी इंडियन एक्सप्रेस के मुख्य रिपोर्टर थे. मैंने उन तथ्यों को किताब में शामिल किया है. उनके बारे में जानना चाहिए.

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यह वह समय था जब सावरकर ने दावा किया था कि बोस उनके निर्देशानुसार काम कर रहे थे. उनका कहना है कि उन्होंने बोस से कहा था कि आप बर्मा से आएं और जो सैनिक मैं सेना में रखूंगा, वे आपके लोगों पर गोली चलाने से इनकार कर देंगे, वे ब्रिटिश अधिकारियों पर गोली चलाएंगे. जब बोस और आईएनए बर्मा से आए, तो भारतीय लोगों के अंग्रेजों के खिलाफ उठने की बात तो दूर, हिंदू महासभा के सदस्यों ने भी ऐसा नहीं किया. उनके (सावरकर के) अपने लोग वास्तव में उस समय अंग्रेजों के साथ शामिल थे.

दूसरा वास्तव में वह है जो आपने गायों और मूर्ति पूजा और नौ ग्रहों की पूजा और उन सब के बारे में कहा – वह अनुष्ठानों का बहुत मजाक उड़ाते हैं. यह सब उनके लेखन में, उनके एकत्रित कार्यों में उपलब्ध है.

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क्या इन तथ्यों को जानबूझकर नजरअंदाज किया गया?
बिल्कुल. इसीलिए मैंने इसे पहले अध्याय में रखा है. जो लोग उन्हें अपना रहे हैं, जो उन्हें नायक के रूप में सराह रहे हैं, उन्हें पहले उस बाधा को पार करना होगा.यह एक कारण हो सकता है कि उत्तर प्रदेश में सावरकर की मूर्ति बनाने की मांग क्यों नहीं की गई है.

भारत में राजनेता लोगों की राजनीतिक समझ के बारे में बहुत आश्वस्त हैं. इसलिए शायद मांग एक दिन आएगी. इसका एक तरीका है. वे इसे चरणबद्ध ढंग से करते हैं. वो एक जुमला छोड़ते हैं. फिर देखें कि कितने लोग उसे मानने लगते हैं. और फिर दूसरा जुमला और तीसरी फिर जुमला आता है. फिर हर कोई उस बात को सामान्य रूप में देखने लगता है. यह हमेशा इसी तरह किया जाता है, जैसा कि आप देखेंगे. जैसे आप उत्तराखंड में एक नागरिक संहिता शुरू करते हैं. इसके बारे में बात करते रहें. अब यह सामान्य चर्चा का हिस्सा बन जाता है.

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आपकी किताब में आपने मार्सिले का उल्लेख किया है और सावरकर वहां से कैसे भागे. साथ ही, आपने आईएनए के बारे में भी लिखा है. वास्तविकता क्या थी?
आपको यह समझना होगा कि सावरकर ने यह भी कहा था कि गांधी के बजाय भारत की स्वतंत्रता में हिटलर और तोजो ने एक निश्चित भूमिका निभाई. उन्होंने कहा कि केवल इन दोनों ने हमारी मदद की. वह हर समय दावा करते रहे कि जर्मनी अफगानिस्तान की ओर से हमला करेगा और जापान पूर्व से आएगा. लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध में, जर्मनी का भूमि पर से हमला कहां है? लेकिन वह हिटलर और तोजो की प्रशंसा करते हैं. और वह भी तब जब हिटलर ने बोस को एक साल तक अपॉइंटमेंट देने के लिए इंतजार करवाया, वह भी सिर्फ एक फोटो खिंचाने के लिए. फिर उन्होंने उन्हें पनडुब्बी में जापान भेज दिया. राजनीतिक कारणों से इन तथ्यों को अनदेखा किया गया है. इसलिए उन्होंने अपनी किताब के पहले अध्याय में ही इन बातों को शामिल किया है.

आप सावरकर के इस कथन को उद्धृत करते हैं, ‘आज के चश्मे पहनकर अतीत में दोष मत निकालो.’ क्या सावरकर खुद ऐसा करने के दोषी नहीं थे?
बिल्कुल, और कई बार. मैंने किताब में इस बात पर बहुत समय और स्थान दिया है कि उनके अनुसार इतिहास को कैसे पढ़ा और प्रस्तुत किया जाना चाहिए. उदाहरण के लिए, जब वे 1857 के बारे में लिखते हैं, तो वे कहते हैं कि हिंदू और मुसलमानों ने अतीत में एक दूसरे से लड़ाई की होगी, लेकिन अब हमें यह दिखाना चाहिए कि उन्होंने एक साथ काम किया. और पुस्तक (जो सावरकर ने लिखी थी) अंग्रेजों के खिलाफ सभी के एक साथ काम करने का उत्सव है. वह पुस्तक 1907-08 में लिखी गई थी. लेकिन 15 वर्षों में, उनकी राय खिलाफ हो जाती है. 1857 पर किताब में उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता को दिखाया था. लेकिन 1923 में ‘हिंदुत्व’ लिखने के बाद उनका विचार बदल गया, इस किताब में उन्होंने मुसलमानों को अलग करने का दृष्टिकोण अपनाया.

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दिलचस्प बात यह है कि उस पुस्तक में, उन्होंने गांधी का बिल्कुल भी उल्लेख नहीं किया है. स्वाभाविक रूप से नहीं, क्योंकि वे गांधी के प्रति जुनूनी थे, और लोग उन्हें हिंदू धर्म में मौजूद हर अच्छी चीज का प्रतीक मानते थे. फिर सावरकर ही तो हिंदुत्व, हिंदुत्व, हिंदुत्व की बात कर रहे हैं. जब हमें एहसास होता है कि उन्होंने स्वतंत्रता के लिए जिम्मेदार लोगों की सूची से गांधी को बाहर कर दिया, तो यह साफ हो जाता है कि वर्तमान शासन सावरकर को गांधी के प्रतिपक्ष के रूप में क्यों स्थापित करना चाहता है.

बिल्कुल, वे उन्हें गांधी के समान स्तर पर उठाना चाहते हैं, और वास्तव में उनसे आगे निकलना चाहते हैं. वह गांधी को मिटाने के लिए एक प्रकार का रबर हैं. मैंने किताब में एक दिलचस्प प्रस्ताव को उजागर किया है. ऐसा कोई रिकॉर्ड नहीं है जिसमें सावरकर राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिए काम कर रहे हों. आप 1937-38 से पहले जिन्ना की बहुत सी बातें पा सकते हैं, जिन्ना हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए काम कर रहे हैं. वह हिंदू-मुस्लिम एकता के राजदूत हैं, जैसा कि सरोजिनी नायडू ने उन्हें कहा था. आप जिन्ना के पूरे भारत की स्वतंत्रता के लिए काम करने के कई उदाहरण पा सकते हैं. लेकिन आपको सावरकर का पूरे भारत की स्वतंत्रता के लिए काम करने का कोई उदाहरण नहीं मिलेगा. सिवाय तब जब वे इंग्लैंड में एक युवा लड़के थे और वह भी उनके अपने कहने पर. जब वे इंग्लैंड में थे, तो उन्होंने गांधी को अपना दोस्त भी बताया. तब वे 1908 में इंडिया हाउस में एक साथ रहते थे.

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यहां ये भी जानना जरूरी है कि वह गांधी की हत्या के मामले में सह-आरोपी के रूप में मुकदमे में एक बयान में क्या कहते हैं. उन्होंने कहा, ‘यह कैसे संभव है? हम दोस्त थे. हम लंदन में इंडिया हाउस में दोस्तों के रूप में एक साथ रहते थे.’ यह पूरी तरह से झूठ है. 1908 में, गांधी इंग्लैंड में नहीं थे. वे दक्षिण अफ्रीका में थे. 1907 में, वे वहां नहीं थे. 1906 में, उन्हें दक्षिण अफ्रीकी भारतीयों द्वारा ब्रिटिश राजनेताओं के सामने अपना मामला पेश करने के लिए भेजा गया था. और वह हाजी नामक एक व्यक्ति के साथ वहां आते हैं. वे दोनों एक रात के लिए इंडिया हाउस जाते हैं. केवल एक रात. दोस्तों के रूप में एक साथ रहने का कोई सवाल ही नहीं था. और गांधी अगस्त 1914 तक इंग्लैंड नहीं लौटते हैं. और (इस बीच) सावरकर को 1910 में भारत भेज दिया गया था. 

Location :

New Delhi,Delhi

First Published :

March 06, 2025, 13:20 IST

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