China May Stop Indus and Sutlej Water: जब भारत ने पहलगाम आतंकी हमले के बाद 1960 की सिंधु जल संधि पर रोक लगाने का फैसला किया तो इस पर ढेरों लेख लिखे गए कि इसका पाकिस्तान पर क्या असर होगा. हालांकि लंबे समय में पाकिस्तान के लिए इसके बहुत गंभीर परिणाम होंगे, लेकिन अभी यह मनोवैज्ञानिक दबाव की रणनीति है. कई सालों की बातचीत के बाद सितंबर 1960 में साइन की गई इस संधि का उद्देश्य भारत और पाकिस्तान के बीच साझा नदियों के जल का प्रबंधन करना था. दोनों देश कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था होने के कारण सिंचाई और कृषि के लिए नदियों पर बहुत अधिक निर्भर हैं. संधि के अनुसार, भारत को सिंधु प्रणाली की ‘पूर्वी नदियों’ – सतलुज, व्यास और रावी के पानी का जितना हो सके उपयोग करने की अनुमति है. वहीं, पाकिस्तान को ‘पश्चिमी नदियों’ – सिंधु, झेलम और चिनाब से पानी प्राप्त करने की अनुमति दी गई है.
लेकिन क्या आप जानते हैं कि सिंधु और सतलुज नदियां कहां से निकलती हैं. सिंधु और सतलज नदियां चीन के कब्जे वाले तिब्बत से निकलती हैं. इनका उद्गम हिमालय की ऊंचाइयों में ग्लेशियर्स से होता है. सिंधु नदी तिब्बत में उत्तर-पश्चिम दिशा में बहती है, फिर भारत के लद्दाख (जम्मू-कश्मीर) में प्रवेश करती है. इसी तरह सतलुज नदी का उद्गम भी तिब्बत में है और फिर वो भारत के हिमाचल प्रदेश में प्रवेश करती है. क्या हो कि अगर चीन इन नदियों का पानी रोक ले? ऐसे में क्या कहता है अंतरराष्ट्रीय कानून और क्या ये संभव है…
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कहां से निकलती है सिंधु नदी
सिंधु नदी तिब्बत की मानसरोवर झील और कैलाश पर्वत के निकट सेंग खबाब नामक ग्लेशियर या हिमनद से निकलती है. यह स्थान तिब्बत में लगभग 5,500 मीटर की ऊंचाई पर है. सेंग खबाब हिमनद से पिघलने वाला पानी छोटी धाराओं के रूप में बहता है, जो मिलकर सिंधु नदी का निर्माण करता है. यह नदी तिब्बत में कुछ सफर तय करने के बाद फिर भारत के लद्दाख (पहले जम्मू-कश्मीर) में प्रवेश करती है. भारत में यह ज़ांस्कर और श्योक जैसी सहायक नदियों से मिलती है और फिर पाकिस्तान में बहकर अरब सागर में मिलती है. इसकी लंबाई लगभग 3,180 किलोमीटर है. यह प्राचीन सिंधु घाटी सभ्यता की आधार नदी थी और आज भी भारत-पाकिस्तान की कृषि और जलविद्युत के लिए महत्वपूर्ण है.
सतलुज नदी तिब्बत में लांगचेन खबाब हिमनद से निकलती है.
तिब्बत में है सतलुज का उद्गगम
सतलुज नदी तिब्बत में राक्षसताल (राकस ताल) के पास लांगचेन खबाब हिमनद से निकलती है. यह स्थान भी लगभग 4,600-5,000 मीटर की ऊंचाई पर है. लांगचेन खबाब हिमनद से पिघला पानी सतलुज का शुरुआती स्रोत बनता है. तिब्बत में यह स्पीति नदी जैसी धाराओं के साथ मिलती है और फिर भारत के हिमाचल प्रदेश में शिपकी ला दर्रा के पास प्रवेश करती है. हिमाचल में यह किन्नर कैलाश क्षेत्र से होकर बहती है और फिर पंजाब में प्रवेश करती है. जहां यह महत्वपूर्ण जलविद्युत और सिंचाई परियोजना भाखड़ा बांध का आधार है. अंत में यह पाकिस्तान में सिंधु नदी में मिल जाती है. इसकी लंबाई लगभग 1,450 किलोमीटर है. यह नदी पंजाब की कृषि और भारत की जलविद्युत परियोजनाओं के लिए महत्वपूर्ण है.
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क्या चीन रोक सकता है पानी
हां, यह बात सही है कि चीन तकनीकी रूप से सिंधु और सतलुज नदियों के पानी को रोक सकता है. क्योंकि दोनों का उद्गम तिब्बत में है और वहां चीन का पूर्ण नियंत्रण है. हालांकि इसके लिए कई तकनीकी, भौगोलिक और भू-राजनीतिक कारकों पर विचार करना होगा.
कैसे कर सकता है चीन इसे संभव
चीन ने सिंधु के उद्गम स्थल वाले इलाके में सेंगे त्संगपो और नगरी शिक्वान्हे जैसे जलविद्युत संयंत्र बनाए हैं. यह पानी के प्रवाह को कंट्रोल कर सकते हैं. चीन ने सतलुज पर ज़दा गॉर्ज में एक बैराज बनाया है और अन्य जलविद्युत परियोजनाएं भी शुरू की हैं. चीन इन बांधों और बैराजों के जरिए पानी के प्रवाह को कम करने, रोकने, या उसका रुख बदलने की क्षमता रखता है.
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सिंधु नदी पर बना एक बांध.
बांधों के जरिये कर सकते हैं ऐसा
चीन के बड़े बांध पानी को रोककर उसके प्रवाह को नियंत्रित कर सकते हैं. उदाहरण के लिए सूखे मौसम में पानी रोककर या बरसात में अचानक छोड़कर चीन भारत और पाकिस्तान को प्रभावित कर सकता है. चीन पानी को अन्य क्षेत्रों में मोड़ सकता है, जैसा कि उसने दक्षिण-उत्तर जल हस्तांतरण परियोजना में किया है. हालांकि यह अभी तक इन नदियों पर लागू नहीं हुआ है. चीन अगर जल-प्रवाह डेटा साझा करना बंद कर दे, जैसा कि उसने 2017 में ब्रह्मपुत्र के लिए किया था. तो भारत में बाढ़ या सूखे की भविष्यवाणी मुश्किल हो सकती है.
पहले कर चुका है चीन
2016 में चीन ने यारलुंग त्संगपो (ब्रह्मपुत्र) की एक सहायक नदी शियाबुकु का प्रवाह एक जलविद्युत परियोजना के लिए रोका था. जिसे भारत के खिलाफ भू-राजनीतिक संदेश के रूप में देखा गया. 2020 में गलवान घाटी संघर्ष के बाद चीन ने गलवान नदी (सिंधु की सहायक) के प्रवाह को रोक किया था, जिससे भारत में पानी की कमी हुई. 2004 में सतलुज की सहायक पारेचु नदी पर एक कृत्रिम झील बनी, जिसे भारत ने ‘जल बम’ की आशंका माना. हालांकि चीन ने तब डेटा साझा किया था, जिससे किसी भारी नुकसान की आशंका को टाला जा सका.
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पानी रोकना एक हथियार
खास स्थितियों में चीन के लिए पानी रोकना एक भू-राजनीतिक हथियार हो सकता है. भारत के साथ तनाव, जैसे गलवान या डोकलाम जैसे सीमा विवादों में चीन पानी को हथियार के रूप में इस्तेमाल कर सकता है. चीन और पाकिस्तान की नजदीकी के कारण, अगर भारत सिंधु जल संधि को निलंबित रखता है या पाकिस्तान का पानी कम करता है. तो चीन जवाबी कार्रवाई के रूप में सिंधु या सतलुज का पानी रोक सकता है. चीन की बढ़ती जल और ऊर्जा मांग के कारण वह इन नदियों का पानी अपने उपयोग के लिए डायवर्ट कर सकता है. हाल के दावों में कहा गया था कि भारत के संधि निलंबन के बाद पाकिस्तान ने चीन से ब्रह्मपुत्र और सतलुज का पानी रोकने की मांग की थी, लेकिन ये दावे फर्जी पाए गए.
चीन में ब्रह्मपुत्र नदी पर बना एक बांध.
पानी रोकने की सीमाएं
सिंधु और सतलुज का अधिकांश पानी भारत और पाकिस्तान में वर्षा और सहायक नदियों से आता है. उदाहरण के लिए सिंधु का केवल 10-15 फीसदी और सतलज का 20 फीसदी पानी तिब्बत से आता है. जो पूरी तरह रोकना मुश्किल है. बड़े पैमाने पर पानी रोकने के लिए विशाल बुनियादी ढांचे की जरूरत है, जो अभी सीमित है. तिब्बत में बड़े बांध बनाना जोखिम भरा है. क्योंकि ये भूकंप संवेदनशील क्षेत्र है. 2008 में वेंचुआन में आए भूकंप में एक बांध को नुकसान पहुंचा था. पानी रोकने से तिब्बत की पारिस्थितिकी और स्थानीय समुदाय प्रभावित हो सकते हैं.
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होता है अंतरराष्ट्रीय दबाव
पानी रोकना अंतरराष्ट्रीय जल कानूनों (जैसे हेलसिंकी नियम) का उल्लंघन माना जा सकता है. जिससे चीन को वैश्विक आलोचना का सामना करना पड़ सकता है. उसका भारत और बांग्लादेश जैसे देशों के साथ तनाव बढ़ सकता है, जिससे क्षेत्रीय अस्थिरता बढ़ेगी. हालांकि पंजाब और हिमाचल प्रदेश में भाखड़ा बांध और अन्य परियोजनाएं प्रभावित हो सकती हैं, जिससे सिंचाई और जलविद्युत उत्पादन में कमी आएगी. लद्दाख में पानी की कमी से स्थानीय कृषि और सैन्य अड्डों को नुकसान हो सकता है.
मौजूदा भारत-चीन समझौते
भारत और चीन के बीच सतलुज और ब्रह्मपुत्र के लिए हाइड्रोलॉजिकल डेटा साझा करने के समझौते हैं. इन पर 2002-2018 में हस्ताक्षर किए गए. ये बाढ़ के मौसम (जून-अक्टूबर) में डेटा साझा करने के लिए हैं. हालांकि, 2023 में ये समझौते समाप्त हो गए, लेकिन चीन ने सतलुज के लिए डेटा देना जारी रखा है. दोनों देशों के बीच कोई औपचारिक जल-बंटवारा संधि नहीं है, जिससे चीन को अधिक स्वतंत्रता मिलती है.