Last Updated:July 16, 2025, 09:19 IST
Laxmanpur Bathe Massacre: बिहार के अरवल जिले के लक्ष्मणपुर बाथे गांव में 1 दिसंबर 1997 की रात रणवीर सेना ने एक ऐसा नरसंहार अंजाम दिया जिसने मानवता को शर्मसार कर दिया. 58 दलितों, जिसमें 27 महिलाएं और 16 बच्चों क...और पढ़ें

लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार बिहार में जातीय हिंसा का काला अध्याय है. मृतकों की याद में बनाई गई स्मारक.
हाइलाइट्स
रणवीर सेना ने 1992 में गया जिले के बारा नरसंहार का बदला लेने के लिए लक्ष्मणपुर बाथे में 58 दलितों को मार डाला. वर्ष 2010 में 16 को फांसी और 10 को उम्रकैद की सजा, लेकिन 2013 में पटना हाई कोर्ट ने सभी को बरी कर दिया. लालू शासन में हिंसा पर कंट्रोल की कमी और बाद में BJP-JDU ने इसे राजद के खिलाफ राजनीतिक हथियार बना लिया.पटना. 1 दिसंबर 1997 की रात बिहार के अरवल जिले के लक्ष्मणपुर बाथे गांव में रणवीर सेना ने नरसंहार किया था जिसमें 58 दलितों की बेरहमी से हत्या की गई थी. यह सामूहिक हत्याकांड बिहार के सामाजिक-राजनीतिक तनाव का क्रूर प्रतीक है. यह घटना न केवल एक हिंसक वारदात थी, बल्कि जमीन, जाति और शक्ति के संघर्ष का दुखद परिणाम थी जिसने बिहार के सामाजिक ढांचे पर गहरी चोट छोड़ी. इस घटना में रणवीर सेना के सशस्त्र सदस्यों ने बारा नरसंहार के प्रतिशोध में 27 महिलाओ, जिनमें कुछ गर्भवती थी और 16 बच्चों समेत 58 लोगों की सामूहिक हत्या कर दी थी. यह घटना केवल एक हिंसक वारदात नहीं, बल्कि बिहार के सामाजिक-राजनीतिक ढांचे की गहरी खामियों का आईना थी. इसे आज भी तत्कालीन बिहार के ‘जंगलराज’ के एक और सबूत के रूप में देखा जाता है. कहा जाता है कि लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार की जड़ें 1992 के बारा नरसंहार में थीं जहां माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (MCC) ने 37 भूमिहारों की हत्या की थी. यह प्रतिशोध उच्च जातियों और नक्सलियों के बीच चल रहे संघर्ष का हिस्सा था जो 1970 के दशक से बिहार में भूमि सुधार और नक्सल आंदोलन के कारण भड़का था.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन ने दलितों और गरीब किसानों को संगठित कर जमींदारों के खिलाफ आवाज उठाई जिससे भूमिहारों में असुरक्षा की भावना पनपी. बता दें कि रणवीर उच्च जाति के जमींदारों की एक निजी सेना थी जिसका गठन 1994 में हुआ था. दरअसल, लक्ष्मणपुर बाथे को निशाना इसलिए बनाया गया क्योंकि इसे CPI(ML) के समर्थकों का गढ़ माना गया जो कथित तौर पर जमीन और मजदूरी के अधिकारों के लिए लड़ रहे थे.
बिहार का माहौल और जातीय तनाव
इस नरसंहार ने बिहार में जातीय संघर्ष की आग को और भड़का दिया. घटना के बाद गांव में दहशत फैल गई और पीड़ित परिवारों को मुआवजे और सुरक्षा के वादों के बावजूद उपेक्षा का सामना करना पड़ा. पुलिस की निष्क्रियता और उच्च जाति के प्रभावशाली लोगों का संरक्षण इस हिंसा को बढ़ावा देता रहा. 1997-98 में बिहार में कई छोटे-बड़े टकराव हुए. हाइबासपुर और शंकरबिगहा में नरसंहार इसका प्रतिफल कहा जाता है जो बिहार में जातीय तनाव को विस्तार देता गया. मीडिया और सामाजिक संगठनों ने इन घटनाओं को राष्ट्रीय शर्म करार दिया, लेकिन स्थानीय स्तर पर स्थिति नियंत्रण से बाहर होती चली गई.
लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार को बारा नरसंहार का प्रतिशोध कहा गया.
राजनीति के दखल ने जख्म गहरा किया
कहा जाता है कि 1990 के दशक में लालू प्रसाद यादव की सरकार ने कथित तौर पर सामाजिक न्याय की राजनीति को बढ़ावा दिया, लेकिन जातीय हिंसा पर नियंत्रण नहीं कर सकी. रणवीर सेना के हमलों को कुछ जानकारों ने स्थानीय नेताओं के समर्थन से जोड़ा जो वोट बैंक को मजबूत करने के लिए तनाव को हवा दे रहे थे. 1997 में राबड़ी देवी की सरकार ने जांच के लिए न्यायमूर्ति अमीर दास आयोग गठित किया, लेकिन इसकी रिपोर्ट दबा दी गई. बाद में BJP और JD(U) ने इस मुद्दे को विपक्ष पर हमले के लिए उठाया जिससे यह राजनीतिक हथियार बन गया.
बिहार में जातीय नरसंहारों की नई नींव पड़ी
लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार ने 1999 के सेनारी नरसंहार की नींव रखी जहां माओवादियों ने 34 भूमिहारों की हत्या की थी. इसे बदले की कार्रवाई बताया गया. यह सिलसिला 2000 के मियांपुर और नारायणपुर नरसंहारों तक जारी रहा. इन घटनाओं ने दलितों और उच्च जातियों के बीच अविश्वास को और गहरा किया, जिसका असर चुनावी राजनीति में देखा गया. नक्सली गतिविधियां भी बढ़ीं, क्योंकि पीड़ितों को न्यायिक प्रणाली में भरोसा उठ गया.
न्यायिक विफलता का बड़ा प्रतीक है लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार केस.
ढुलमुल कानूनी कार्रवाई और न्यायिक विफलता
इस मामले में 2010 में आरा सेशन कोर्ट ने 16 आरोपियों को फांसी और 10 को उम्रकैद की सजा सुनाई. अदालत ने इसे असाधारण क्रूरता का मामला करार दिया. लेकिन, 9 अक्टूबर 2013 को पटना हाई कोर्ट ने साक्ष्य के अभाव में सभी 26 आरोपियों को बरी कर दिया. यह फैसला व्यापक आलोचना का शिकार हुआ और CPI(ML) ने बिहार बंद का आह्वान किया. सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की बात कही, लेकिन कार्रवाई धीमी रही. हाई कोर्ट के फैसले ने पीड़ितों में गहरा अविश्वास पैदा किया और पुलिस-प्रशासन की निष्क्रियता पर सवाल उठाए.
प्रतिशोध का नरसंहार, प्रतिफल और प्रभाव
इस नरसंहार का सबसे बड़ा असर बिहार के सामाजिक ढांचे पर पड़ा. दलितों और उच्च जातियों के बीच खाई चौड़ी हुई और जातीय ध्रुवीकरण चुनावी राजनीति का हिस्सा बन गया. 2007 के बाद बड़े नरसंहार रुके, लेकिन छोटे टकराव जारी रहे. 2023 की जाति आधारित जनगणना ने फिर से जातीय समीकरणों को हवा दी जो भविष्य में तनाव को बढ़ा सकता है. पीड़ित परिवार आज भी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं और इस घटना ने बिहार की न्यायिक और शासकीय विफलता को उजागर किया. यह नरसंहार मानवता के खिलाफ अपराध था, जिसे राजनीति ने ईंधन दिया और न्याय ने ठंडा कर दिया.
जंगलराज के दौर में गहरे तक जड़ जमा चुके सामाजिक वैमन्यस्यता के प्रभाव को बदले बिहार में समाप्त करना ही होगा. जनता दल यूनाइटेड का एक पोस्टर जिसमें लालू यादव के शासनकाल पर निशाना साधा गया है.
बिहार में जातीय हिंसा का काला अध्याय
लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार बिहार के इतिहास का एक काला धब्बा है जो भूमि, जाति और शक्ति के संघर्ष को दर्शाता है. राजनीतिक इच्छाशक्ति और कानूनी व्यवस्था की कमजोरियां इसे और उलझाऊ बनाती हैं. सरकार को ऐसी घटनाओं से सबक लेते हुए सामाजिक समरसता और न्याय सुनिश्चित करना होगा वरना यह दंश फिर सिर उठा सकता है.
पत्रकारिता क्षेत्र में 22 वर्षों से कार्यरत. प्रिंट, इलेट्रॉनिक एवं डिजिटल मीडिया में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन. नेटवर्क 18, ईटीवी, मौर्य टीवी, फोकस टीवी, न्यूज वर्ल्ड इंडिया, हमार टीवी, ब्लूक्राफ्ट डिजिट...और पढ़ें
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