बिहार के सुपौल में कांग्रेस की ‘पलायन रोको, नौकरी दो’ पदयात्रा शुक्रवार, 28 मार्च 2025 को बड़े जोश के साथ निकाली गई, लेकिन इस दौरान पार्टी के प्रमुख युवा नेता की गैरमौजूदगी ने सियासी हलकों में नई चर्चाओं को जन्म दे दिया. यह नेता कोई और नहीं, बल्कि कन्हैया कुमार हैं. उनकी गैरहाजिरी में एनएसयूआई के राष्ट्रीय अध्यक्ष वरुण चौधरी और कांग्रेस जिलाध्यक्ष प्रो. विमल कुमार यादव ने इस यात्रा का नेतृत्व किया. हालांकि कन्हैया के न आने से अटकलें तेज हो गईं. सवाल उठने लगे कि क्या यह उनकी रणनीति का हिस्सा था, या इसके पीछे पूर्व की तरह राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) चीफ लालू प्रसाद यादव की प्रेशर पॉलिटिक्स काम कर रही है?
कांग्रेस के तेजतर्रार युवा नेता के रूप में उभरे कन्हैया कुमार इस पदयात्रा के शुरुआती चरणों से ही सक्रिय रूप से शामिल रहे हैं. उन्होंने बिहार में पश्चिम चंपारण के भितिहरवा गांधी आश्रम से इस पदयात्रा की शुरुआत की थी. उनकी जबर्दस्त भाषण शैली और बेरोजगारी-पलायन जैसे मुद्दों पर सरकार को घेरने की क्षमता ने उन्हें कांग्रेस का एक बड़ा चेहरा बना दिया है. ऐसे में, शुक्रवार की इस महत्वपूर्ण पदयात्रा से उनकी अनुपस्थिति स्वाभाविक रूप से सवाल उठाती है.
एक संभावना यह जताई जा रही है कि कन्हैया ने जानबूझकर इस पदयात्रा से दूरी बनाई हो. यह उनकी अपनी रणनीति का हिस्सा हो सकता है, ताकि वे कांग्रेस के भीतर अपनी स्थिति को मजबूत कर सकें या किसी बड़े सियासी कदम की तैयारी कर रहे हों. लेकिन यह तर्क कमजोर पड़ता है, क्योंकि यह यात्रा कांग्रेस की बिहार में जमीन मजबूत करने की कोशिश का हिस्सा है, और कन्हैया इसका नेतृत्व करने वाले सबसे बड़े चेहरों में से एक थे. उनकी गैरमौजूदगी से पार्टी को नुकसान होने की संभावना ज्यादा है, खासकर तब जब विपक्षी दल इसे प्रचार के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं.
लालू की प्रेशर पॉलिटिक्स: कितना सच?
दूसरी ओर, कन्हैया की अनुपस्थिति को लालू प्रसाद यादव और आरजेडी की प्रेशर पॉलिटिक्स से जोड़कर देखा जा रहा है. बिहार की सियासत में लालू और उनके बेटे तेजस्वी यादव की मौजूदगी महागठबंधन के लिए निर्णायक रही है. लेकिन कन्हैया का उभरता कद तेजस्वी के लिए चुनौती बन सकता है. दोनों युवा नेता हैं, दोनों की अपील बिहार के नौजवानों तक है, और दोनों ही बेरोजगारी-पलायन जैसे मुद्दों को उठाते हैं. ऐसे में यह संभव है कि लालू परिवार कन्हैया की बढ़ती लोकप्रियता को अपने लिए खतरा मान रहा हो.
पिछले कुछ महीनों में कांग्रेस और आरजेडी के बीच तनाव के संकेत मिले हैं. मार्च 2025 में जब कन्हैया ने पदयात्रा शुरू की, तब भी कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में कहा गया था कि लालू और तेजस्वी इसे पसंद नहीं कर रहे थे. तेजस्वी ने 2020 में नौकरी के मुद्दे पर चुनाव लड़ा था और 2025 के लिए भी उनकी रणनीति इसी के इर्द-गिर्द घूम रही है. कन्हैया का इस मुद्दे पर उभरना उनके नैरेटिव को कमजोर कर सकता है. यह भी चर्चा है कि लालू ने कांग्रेस पर दबाव डाला हो कि कन्हैया को इस यात्रा से दूर रखा जाए, ताकि महागठबंधन में सीट बंटवारे और नेतृत्व के सवाल पर उनकी स्थिति मजबूत रहे.
हालांकि, इस थ्योरी के पक्ष में अभी तक कोई ठोस सबूत नहीं है. अगर लालू ने सचमुच ऐसा किया होता, तो कांग्रेस की ओर से इसका विरोध या कोई बयान सामने आता. लेकिन यात्रा के दौरान वरुण चौधरी और प्रो. विमल कुमार यादव की मौजूदगी और उत्साह से यह नहीं लगता कि पार्टी किसी दबाव में थी. फिर भी, बिहार की सियासत में लालू की चालबाजियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.
कांग्रेस के भीतर अंतर्कलह की आहट?
एक तीसरा पहलू यह भी हो सकता है कि कन्हैया की अनुपस्थिति कांग्रेस के भीतर की गुटबाजी का नतीजा हो. बिहार कांग्रेस में पहले से ही दो धड़े दिखाई दे रहे हैं- एक जो कन्हैया और बिहार प्रभारी कृष्णा अल्लावरु के साथ है, और दूसरा जो पुराने नेताओं जैसे अखिलेश प्रसाद सिंह (जिन्हें हाल ही में प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाया गया) के साथ था. कन्हैया की बढ़ती लोकप्रियता और राहुल गांधी का उन पर भरोसा शायद कुछ नेताओं को असहज कर रहा हो. यह भी संभव है कि उनकी अनुपस्थिति को पार्टी के भीतर के कुछ नेताओं ने सुनिश्चित किया हो, ताकि उनकी छवि को नुकसान पहुंचे.
कन्हैया की गैरमौजूदगी का असर कई स्तरों पर हो सकता है. पहला, यह कांग्रेस की एकता और संगठनात्मक मजबूती पर सवाल उठाता है. दूसरा, यह विपक्षी दलों, खासकर बीजेपी और जेडीयू, को मौका देता है कि वे इसे कांग्रेस की कमजोरी के रूप में पेश करें. तीसरा, अगर यह वाकई लालू की प्रेशर पॉलिटिक्स का नतीजा है, तो यह महागठबंधन के भविष्य के लिए खतरे की घंटी है. 2025 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस अगर अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने की कोशिश कर रही है, तो उसे आरजेडी के साथ रिश्तों को सावधानी से संभालना होगा.
कन्हैया कुमार की पदयात्रा से दूरी के पीछे कई कारण हो सकते हैं. हालांकि उनकी अनुपस्थिति ने निश्चित रूप से सियासी गलियारों में हलचल मचा दी है और आने वाले दिनों में यह साफ हो सकता है कि यह महज एक संयोग था या इसके पीछे कोई बड़ा खेल चल रहा है. बिहार की सियासत में यह घटना एक छोटा अध्याय हो सकता है, लेकिन इसके दूरगामी परिणाम 2025 के चुनावी समीकरण को प्रभावित कर सकते हैं.