जब ना सर्फ था ना साबुन,तब भी चमकते थे राजा-रानियों के कपड़े,कैसे होती थी धुलाई

3 hours ago

Last Updated:March 15, 2025, 10:13 IST

भारत में सर्फ और साबुन का इतिहास 150 साल पुराना भी नहीं है. उससे पहले हमारे यहां कपड़े साफ भी होते थे और चमचमाते भी थे, तो क्या था वो तरीका जिससे राजा और रानियों के कपड़े धोए जाने के बाद खूब चमकते थे.

जब ना सर्फ था ना साबुन,तब भी चमकते थे राजा-रानियों के कपड़े,कैसे होती थी धुलाई

भारत में 1888 में भारत में पहली बार साबुन का मशीनी उत्पादन शुरू हुआ. डिटर्जेंट तो देश में 20 सदी के बीच में आया. असल सर्फ का इस्तेमाल 1960 के दशक से शुरू हुआ, जब हिंदुस्तान लीवर ने इसे सबसे पहले बाजार में पहुंचाया. इससे लोगों के कपड़े बेहतर धुलने और साफ होने लगे. लेकिन ऐसा नहीं कि पहले प्राचीन भारत में कपड़े धुलते ही नहीं थे या साफ नहीं होते थे. राजा-रानियों और शहंशाहों के कपड़े तो ऐसे चमकते थे कि पूछिए मत. तब आखिर कौन सी ऐसी तकनीक या तरीका था जिससे कपड़े खूब साफ होते थे. और उनको पहनने में भी मजा आता था.

क्या आपने कभी सोचा कि जब साबुन और सर्फ नहीं रहे होंगे तो कपड़े कैसे धुलते रहे होंगे. राजा-रानियों के महंगे कपड़े कैसे साफ होकर चमकते भी रहे होंगे. साथ में सुरक्षित भी रहते रहे होंगे. कपड़ों की मुलायमित भी बची रहती रही होगी. तब कैसे आम आदमी भी अपने कपड़े धोता रहा होगा.

साबुन का उपयोग भारत में प्राचीन काल से चला आ रहा है, हालांकि आधुनिक साबुन और सर्फ का विकास बाद में हुआ. प्राचीन भारत में लोग स्वच्छता के लिए प्राकृतिक पदार्थों का उपयोग करते थे:

वैदिक काल (1500-500 ईसा पूर्व) में लोग नीम, रीठा, शिकाकाई, और हल्दी जैसे प्राकृतिक पदार्थों का इस्तेमाल शरीर और कपड़ों की सफाई के लिए करते थे. नीम की पत्तियों और तेल को इसके जीवाणुरोधी गुणों के लिए जाना जाता था.

भारत में आधुनिक साबुन की शुरुआत 130 साल से पहले पहले ब्रिटिश शासन में हुई थी. लीवर ब्रदर्स इंग्‍लैंड ने भारत में पहली बार आधुनिक साबुन बाजार में उतारने का काम किया. पहले तो ये कंपनी ब्रिटेन से साबुन को भारत में आयात करती थी. उनकी मार्केटिंग करती थी. जब भारत में लोग साबुन का इस्तेमाल करने लगे तो फिर यहां पहली बार उसकी फैक्ट्री लगाई गई.

ये फैक्ट्री नहाने और कपड़े साफ करने दोनों तरह के साबुन बनाती थी. नॉर्थ वेस्‍ट सोप कंपनी पहली ऐसी कंपनी थी जिसने 1897 में मेरठ में देश का पहला साबुन का कारखाना लगाया. ये कारोबार खूब फला फूला. उसके बाद गोदरेज और जमशेदजी टाटा इस कारोबार में पहली भारतीय कंपनी के तौर पर कूदे.

लेकिन सवाल यही है कि जब भारत में साबुन का इस्तेमाल नहीं होता था. सोड़े और तेल के इस्तेमाल से साबुन बनाने की कला नहीं मालूम थी तो कैसे कपड़ों को धोकर चकमक किया जाता था.

प्राचीन भारत में रीठे का इस्तेमाल सुपर सोप की तरह होता था. इसके छिलकों से झाग पैदा होता था, जिससे कपड़ों की सफाई होती थी, वो साफ भी हो जाते थे और उन पर चमक भी आ जाती थी. रीठा कीटाणुनाशक का भी काम करता था.

राजघरानों के कपड़े तो उनके खास धोबी ही धोया करते थे लेकिन उनका काम इतना गजब का होता था कि कोई भी इससे प्रभावित हो जाए. कपड़े बिल्कुल लकदक साफ होते थे, चाहे रेशम हो या मलमल, क्या मजाल कि कपड़े में कोई समस्या आ जाए या ये साफ होकर चमकने ना लगे.

रीठा खूब इस्तेमाल होता था
भारत वनस्पति और खनिज से हमेशा संपन्न रहा है. यहां एक पेड़ होता है जिसे रीठा कहा जाता है. तब कपड़ों को साफ करने के लिए रीठा का खूब इस्तेमाल होता था. राजाओं के महलों में रीठा के पेड़ अथवा रीठा के उद्यान लगाए जाते थे. महंगे रेशमी वस्त्रों को कीटाणु मुक्त और साफ करने के लिए रीठा आज भी सबसे बेहतरीन ऑर्गेनिक प्रोडक्ट है.

प्राचीन भारत में रीठे का इस्तेमाल सुपर सोप की तरह होता था. इसके छिलकों से झाग पैदा होता था, जिससे कपड़ों की सफाई होती थी, वो साफ भी हो जाते थे और उन पर चमक भी आ जाती थी. रीठा कीटाणुनाशक का भी काम करता था.

पुराने जमाने में धोबी से धुला कपड़ा वाशिंग मशीन की धुलाई को भी मात करता था. वो इन कपड़ों की सफाई में कभी सर्फ और साबुन का इस्तेमाल नहीं करते थे.

अब रीठा का इस्तेमाल बालों को धोने में खूब होता है. रीठा से शैंपू भी बनाए जाते हैं. ये अब भी खासा लोकप्रिय है. पुराने समय में भी रानियां अपने बड़े बालों को इसी से धोती थीं. इसे सोप बेरी या वाश नट भी कहा जाता था.

पानी में उबाला जाता था कपड़ों को
तब दो तरह से कपड़े साफ होते थे. आम लोग अपने कपड़े गर्म पानी में डालते थे और उसे उबालते थे. फिर इसे उसमें निकालकर कुछ ठंडा करके उसे पत्थरों पर पीटते थे, जिससे उसकी मैल निकल जाती थी. ये काम बड़े पैमाने पर बड़े बड़े बर्तनों और भट्टियों लगाकर किया जाता था. अब भारत में जहां बड़े धोबी घाट हैं वहां कपड़े आज भी इन्हीं देशी तरीकों से साफ होते हैं. उसमें साबुन या सर्फ का इस्तेमाल नहीं होता.

महंगे कपड़ों को रीठा के झाग से धोते थे
महंगे और मुलायम कपड़ों के लिए रीठा का इस्तेमाल होता था. पानी में रीठा के फल डालकर उसे गर्म किया जाता है. ऐसा करने से पानी में झाग उत्पन्न होता है. इसको कपड़े पर डालकर उसे ब्रश या हाथ से पत्थर या लकड़ी पर रगड़ने से ना कपड़े साफ हो जाते थे बल्कि कीटाणुमुक्त भी हो जाते थे. शरीर पर किसी प्रकार का रिएक्शन भी नहीं करते.

प्राचीन चीन में नए सिल्क के कपड़े टबों में भिगोकर उन्हें इस तरह पीटकर साफ किया जाता था.

सफेद रंग का एक खास पाउडर भी आता था काम
एक तरीका साफ करने का और था, जो भी खूब प्रचलित था. ग्रामीण क्षेत्रों में खाली पड़ी भूमि पर, नदी-तालाब के किनारे अथवा खेतों में किनारे पर सफेद रंग का पाउडर दिखाई देता है जिसे ‘रेह’ भी कहा जाता है. भारत की जमीन पर यह प्रचुर मात्रा में पाया जाता है. इसका कोई मूल्य नहीं होता. इस पाउडर को पानी में मिलाकर कपड़ों को भिगो दिया जाता है. इसके बाद कपड़ों लकड़ी की थापी या पेड़ों की जड़ों से बनाए गए जड़ों से रगड़कर साफ कर दिया जाता था.

रेह एक बहुमूल्य खनिज है. इसमें सोडियम सल्फेट, मैग्नीशियम सल्फेट और कैल्शियम सल्फेट होता है, इसमें सोडियम हाइपोक्लोराइट भी पाया जाता है, जो कपड़ों को कीटाणुमुक्त कर देता है.

नदियों और समुद्र के सोडा से भी साफ होते थे कपड़े
जब नदियों और समुद्र के पानी में सोड़े का पता लगा तो कपड़े धोने में इसका भरपूर इस्तेमाल होने लगा.

भारतीय मिट्टी और राख से रगड़कर नहाते थे
प्राचीन भारत ही नहीं बल्कि कुछ दशक पहले तक भी मिट्टी और राख सो बदन पर रगड़कर भी भारतीय नहाया करते थे या फिर अपने हाथ साफ करते थे. राख और मिट्टी का इस्तेमाल बर्तनों को साफ करने में भी होता था. पुराने समय में लोग सफाई के लिए मिट्टी का प्रयोग करते थे.

प्रतीकात्मक तस्वीर (image generated by Leonardo AI)

साबुन कब भारत आया
पारंपरिक साबुन, जो वनस्पति तेलों और क्षार (alkali) से बनाया जाता था, वो शायद मध्यकाल में भारत पहुंचा. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि यह तकनीक मध्य पूर्व से व्यापार के जरिए आई. हालांकि, इसका बड़े पैमाने पर उत्पादन 18वीं और 19वीं सदी में औपनिवेशिक काल के दौरान शुरू हुआ.

1888 में भारत में पहली बार साबुन का इस्तेमाल शुरू हुआ. पहले लीवर ब्रदर्स ने साबुन बनाया. इसके बाद भारतीय व्यापारियों ने ये काम शुरू किया. पहली बार गोदरेज ने साबुन बनाना शुरू किया. इसके बाद 1918 में टाटा ऑयल मिल्स (TOMCO) ने भी साबुन उद्योग में कदम रखा. “सनलाइट” साबुन, जो ब्रिटिश कंपनी लीवर ब्रदर्स (अब यूनिलीवर) का उत्पाद था, भारत में खूब लोकप्रिय हुआ.

सर्फ का इतिहास भारत में नया
डिटर्जेंट का इतिहास साबुन की तुलना में अपेक्षाकृत नया है. यह औद्योगिक क्रांति के बाद की देन है. भारत में डिटर्जेंट का आगमन 20वीं सदी के मध्य में हुआ. 1950 के दशक में सिंथेटिक डिटर्जेंट ने बाजार में प्रवेश किया.

हिंदुस्तान लीवर लिमिटेड (HLL, अब हिंदुस्तान यूनिलीवर) ने 1960 के दशक में “सर्फ” डिटर्जेंट को भारत में लांच किया. यह भारत का पहला व्यापक रूप से लोकप्रिय डिटर्जेंट ब्रांड था. विज्ञापन अभियान जैसे “ललिता जी” ने इसे घर-घर तक पहुंचाया. ये साबुन से सस्ता और अधिक प्रभावी विकल्प बन गया.

Location :

Noida,Gautam Buddha Nagar,Uttar Pradesh

First Published :

March 15, 2025, 10:12 IST

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