ब्रिगेडियर उस्मान: ‘कौम’ की जगह ‘वतन’ को तरजीह, टू नेशन थ्योरी को मारी थी लात

6 hours ago

पहलगाम हमले की साजिश रचने वाले पाकिस्तानी सेना प्रमुख आसिम मुनीर ने अपनी जाहिलियत का प्रदर्शन करते हुए Two Nation theory को आगे किया है, और कश्मीर के लिए खून बहाते रहने का राग अलापा है. लेकिन आसीम मुनीर को याद कर लेना चाहिए कि पाकिस्तानी सेना प्रमुख का लालच दिये जाने के बावजूद ब्रिगेडियर उस्मान ने मुस्लिम पाकिस्तान की जगह अपनी मातृभूमि हिंदुस्तान को पसंद किया था और मां भारती की रक्षा करते हुए जम्मू-कश्मीर के लिए हुई पहली लड़ाई में अपना बलिदान दिया था.

पहलगाम में चुन-चुनकर हिंदुओं को मारे जाने के पीछे पाकिस्तानी सेना के प्रमुख आसिम मुनीर की अहम भूमिका मानी जा रही है. जिन्होंने इस जेहादी आतंकी हमले के कुछ दिन पहले ही Two- Nation Theory और कश्मीर को लेकर विवादित और भड़काऊ बयान दिया था.


मुनीर का कहना था कि मुस्लिमों का धर्म अलग है, तरीके अलग हैं, परंपराएं अलग हैं, विचार अलग है, लक्ष्य अलग हैं, और इसी आधार पर Two Nation Theory बनी थी और पाकिस्तान का जन्म हुआ था. मुनीर ने ये भी कहा कि हिंदू और मुस्लिम दो अलग राष्ट्र हैं और वो एक साथ नहीं रह सकते. कश्मीर को पाकिस्तान के गले की नस करार देने वाले मुनीर ने वहां आतंकवाद को अपना समर्थन जारी रखने का भी ऐलान किया.


मुनीर ने ये बयान 16 अप्रैल के दिन आप्रवासी पाकिस्तानियों के पहले सम्मेलन को संबोधित करते हुए दिया था. इसमें पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ सहित तमाम बड़े नेता और अधिकारी बैठे हुए थे. इस बयान के हफ्ते भर बाद पहलगाम के बैसरण घाटी में लश्कर-ए-तैयबा से जुड़े आतंकियों ने हमला किया और 26 लोगों की जान ले ली, इसमें से ज्यादातर हिंदू थे. आतंकियों ने पहले कलमा पढ़ने का आदेश देते हुए मुस्लिमों और गैर-मुस्लिमों को अलग किया, फिर पर्यटकों की पैंट उतरवाई और पहचान सुनिश्चित करने के बाद उनके सर में गोली मारी.

पहलगाम की ये वहशियाना घटना न सिर्फ जम्मू- कश्मीर के इतिहास में पर्यटकों पर हुआ सबसे बड़ा हमला रही, बल्कि 26-11 के मुंबई हमलों के बाद का भी सबसे बड़ा हमला. जिसमें इतने बड़े पैमाने पर निर्दोष लोगों की जान गई. इस हमले से पूरी दुनिया सन्न रह गई, लेकिन जेहादी मानसिकता से ग्रस्त पाकिस्तान का राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व इसे भी उचित ठहराने में लगा रहा, मुजाहिदीनों का संघर्ष बताते रहा. यहां तक कि मुनीर ने हमले के चार दिन बाद, शनिवार, 26 अप्रैल को खैबर- पख्तूनवाड़ा स्थित काकुल के पाकिस्तान मिलिट्री एकेडमी में कैडेट्स के पासिंग आउट परेड को संबोधित करते हुए फिर से Two Nation Theory की बात उठाई और कश्मीर राग अलापा.

मुनीर मदरसे से पढ़े हुए जिहादी मानसिकता के जनरल हैं, जिन्हें अपनी सैन्य उपलब्धियों से ज्यादा हाफिज-ए-कुरान होने पर गर्व है, यानी वो शख्स जो कुरान को पूरी तरह से कंठस्थ किये हुए है. पाकिस्तान में जब सेना लोगों की निगाह में तेजी से उतर रही है, लोग सभी संसाधनों पर सेना के कुंडली मारकर बैठे रहने पर सवाल उठा रहे हैं, तब मुनीर ने पहलगाम में आतंकी हमला करवाकर पाकिस्तान की जनता का ध्यान दूसरी तरफ धकेलने की कोशिश की है.

1947 के बाद से पाकिस्तानी फौज कश्मीर के नाम पर ही अपना अस्तित्व टिकाए हुए है और पाकिस्तान में प्रजातंत्र को भी कभी प्रत्यक्ष तो कभी अप्रत्यक्ष ढंग से बंधक बनाए हुए है. कश्मीर के नाम पर भारत से टकराव मोलने का बहाना हमेशा पाकिस्तानी फौज तलाशती रहती है और इसी की कड़ी में है अपने आतंकी गुर्गों के जरिये पहलगाम में हमले को अंजाम देना.

मुनीर को ये भी पता है कि नरेंद्र मोदी की अगुआई वाला भारत पाकिस्तान की किसी भी बदमाशी को बर्दाश्त नहीं करेगा. उड़ी हमले का जवाब सर्जिकल स्ट्राइक के तौर पर, तो पुलवामा हमले का जवाब बालाकोट एयरस्ट्राइक के तौर पर भारत दे चुका है. इसलिए अब पहलगाम की घटना के बाद भारत का भय दिखाकर मुनीर पाकिस्तानी जनता को अपनी तरफ करने का विफल प्रयास कर रहे हैं, बार- बार हिंदू और मुस्लिम अलग राष्ट्र हैं, साथ नहीं रह सकते, इसका राग अलाप रहे हैं, कश्मीर के लिए खून बहाने की बात कर रहे हैं.

झांगर स्थित ब्रिगेडियर उस्मान मेमोरियल पर लेखक. (सितंबर 2022)


Two Nation Theory को नहीं दी गई थी तरजीह

मुनीर को याद रखना होगा कि जिस Two Nation Theory की याद दिलाते हुए वो हिंदुओं के खिलाफ जहर भरने की कोशिश कर रहे हैं, जम्मू- कश्मीर में आतंकी हमले करा रहे हैं, वो कभी कामयाब नहीं रह पाई, पाकिस्तान के जन्म के साथ ही विफलता की राह पर आगे बढ़ गई. अगर ऐसा नहीं होता, तो बांग्लादेश 1971 में पाकिस्तान से अलग नहीं होता या फिर आज के पाकिस्तान में बलूचिस्तान, सिंध, खैबर- पख्तून वाड़ा से लेकर पीओके तक में जनता विद्रोह नहीं कर रही होती. पाकिस्तान कितनी जल्दी, कितने टुकड़ों में बंट जाएगा, इसका अंदाजा न तो मुनीर को है और न ही पाकिस्तान के नेताओं को, जो पाकिस्तान के अस्तित्व में आने के साथ ही सैन्य हुक्मरानों के हाथ की कठपुतली बने हुए हैं.


‘हाफिज’ मुनीर ने पाकिस्तानी मदरसे में अर्जित इतिहास- भूगोल के अधकचरे ज्ञान की जगह अगर भारत- पाकिस्तान का सैन्य इतिहास भी ढंग से पढ़ लिया होता, तो उन्हें समझ में आ जाता कि Two Nation Theory को तो पाकिस्तान का जन्म होते समय भी कई ऐसे बड़े मुस्लिम सैन्य अधिकारियों ने भी स्वीकार नहीं किया था, जिन्हें पाकिस्तानी फौज ज्वाइन करने के लिए बड़े- बड़े प्रलोभन दिये जा रहे थे. उन्होंने पाकिस्तान की जगह भारत का चुनाव किया, हिंदू और मुस्लिम अलग राष्ट्र है, इस सिद्धांत को ठेंगा दिखा दिया.


पाक सेना के प्रमुख बन सकते थे ब्रिगेडियर उस्मान

ऐसे अधिकारियों में सबसे बड़ा नाम है ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान का. उन्होंने न सिर्फ पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिना के विभाजनकारी सिद्धांत को खारिज किया, बल्कि पाकिस्तान के साथ जम्मू- कश्मीर को लेकर १1947-48 में हुई पहली लड़ाई में मां भारती की सेवा करते हुए अपने प्राणों की आहुति दी, सर्वोच्च बलिदान दिया. उस लड़ाई में भारत की तरफ से लड़ते हुए शहीद होने वाले वरिष्ठतम सैन्य अधिकारी थे ब्रिगेडियर उस्मान, जिन्हें कृतज्ञ भारत ने मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया.

ब्रिगेडियर उस्मान वो शख्स रहे, जिन्होंने कौम की जगह वतन को तरजीह दी. तत्कालीन संयुक्त प्रांत और आज के उत्तर प्रदेश के उस बीबीपुर गांव में उनका जन्म हुआ, जो पहले आजमगढ़ जिले का हिस्सा था और अब मउ जिले के मधुबन तहसील का हिस्सा. 15 जुलाई 1912 को जन्मे उस्मान का बचपन में नाम रखा गया शेख मोहम्मद उस्मान, लेकिन आगे चलकर उन्हें अपने नाम से शेख शब्द भी निकाल दिया. पिता काजी मोहम्मद फारुख बनारस के कोतवाल थे, और अपने बेटे को सिविल सर्विस में भर्ती होते देखना चाह रहे थे, लेकिन उस्मान को शुरु से ही फौज में शामिल होने का मन था.

बनारस के हरिश्चंद्र हाईस्कूल, जो अब हरिश्चंद्र पीजी कॉलेज हो चुका है, से पढ़ाई करने वाले ब्रिगेडियर उस्मान की मुराद आखिरकार पूरी हुई और सैन्य सेवा में चयन होने के बाद जुलाई 1932 में रॉयल मिलिट्री एकेडमी, सैंडहर्स्ट गए, जहां 1802 से ही सैन्य अधिकारियों को प्रशिक्षित किया जा रहा था. सैंडहर्स्ट में प्रशिक्षण पाने वाले आखिरी भारतीय अधिकारियो के दल का हिस्सा थे उस्मान, क्योंकि उसी साल से देहरादून स्थित भारतीय सैन्य अकादमी में भारतीय अधिकारियों को प्रशिक्षित किया जाने लगा, जिसमें शामिल थे स्वतंत्र भारत के सबसे सफल और लोकप्रिय सैन्य अधिकारी, फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ.

एक फरवरी 1934 को सैंडहर्स्ट से पास होने के बाद उस्मान ने बलूच रेजिमेंट ज्वाइन की, द्वितीय विश्व युद्ध के समय बर्मा के अराकान इलाके में 16/10 बलूच बटालियन के सेकेंड इन कमांड के तौर पर भाग लिया. अगस्त 1947 में जब देश का विभाजन हो रहा था, उस समय मोहम्मद उस्मान तरक्की हासिल कर ब्रिगेडियर बन चुके थे और 77 पाराशूट ब्रिगेड की अगुआई कर रहे थे.

भारतीय सेना के अंदर गिने- चुने वरिष्ठ मुस्लिम अधिकारियों में से एक थे ब्रिगेडियर उस्मान. वो उस संयुक्त प्रांत से आते थे, जहां मुस्लिम लीग की जड़ें सबसे मजबूत थीं, कई प्रमुख नेता उन्हीं के इलाके से आते थे. स्वाभाविक तौर पर मुस्लिम लीग के नेता ये मानकर चल रहे थे कि ब्रिगेडियर उस्मान विभाजन की स्थिति में पाकिस्तान का चुनाव करेंगे. पाकिस्तान की फौज में उनके लिए तरक्की भी काफी तेज होती, बहुत जल्द पाकिस्तान सेना के प्रमुख बन सकते थे. उनके जूनियर रहे मोहम्मद मूसा आगे चलकर पाकिस्तानी सेना के प्रमुख बने भी.

लेकिन जब औपचारिक तौर पर उनकी इच्छा जानी गई कि वो पाकिस्तानी फौज ज्वाइन करना चाहते हैं या फिर भारतीय सेना का हिस्सा बने रहना चाहते हैं, तो बेहिचक उन्होंने भारत का चुनाव किया. ब्रिगेडियर उस्मान का ये फैसला मुस्लिम लीग के नेताओं के लिए ही नहीं, बल्कि उस बलूच रेजिमेंट के मुस्लिम अधिकारियों और जवानों के लिए भी चौंका देने वाला था, जहां पर उन्हें फौज ज्वाइन करते समय सबसे पहले रखा गया था, कमिशन किया गया था.


पाकिस्तान के संस्थापक और पहले गवर्नर जनरल मोहम्मद अली जिन्ना से लेकर पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान सहित तमाम बड़े नेताओं ने ब्रिगेडियर उस्मान को मनाने की कोशिश की, उन्हें बड़े- बड़े प्रलोभन दिए, आगे चलकर आर्मी चीफ बनाने का प्रस्ताव भी दिया, लेकिन उन्होंने मुस्लिम लीग के इन नेताओं की विभाजनकारी, सांप्रदायिक नीति को खारिज करते हुए मां भारती की सेवा करना मंजूर किया. वो अपने इरादे से टस से मस नहीं हुए. साथी मुस्लिम अधिकारियों और जवानों के पलटन प्रेम वाले तर्क को भी खारिज कर दिया ब्रिगेडियर उस्मान ने. स्वाभाविक तौर पर पाकिस्तान को जन्म के साथ ही, Two Nation Theory को लेकर सबसे बड़ा तमाचा मिला था ब्रिगेडियर उस्मान से.

यही नहीं, जब विभाजन की वजह से विश्व इतिहास में सबसे बड़ा खून- खराबा और उथलपुथल मची, लोग इधर से उधऱ अपनी जान बचाकर भागने लगे, उस वक्त भी अपनी ब्रिगेड की अगुआई करते हुए ब्रिगेडियर उस्मान ने बिना किसी भेदभाव के हजारों शरणार्थियों की रक्षा की, उन्हें सुरक्षित जगहों पर पहुंचाया.


पाकिस्तान को ब्रिगेडियर उस्मान ने दी पटखनी

पाकिस्तान, उसके सांप्रदायिक नेतृत्व और जेहादी मानसिकता की ओर बढ़ चली फौज को ब्रिगेडियर उस्मान से तब और बड़ा झटका हासिल हुआ, जब जम्मू- कश्मीर को छल, कपट और बल के सहारे हासिल करने के पाकिस्तान के नापाक इरादे को विफल करने के लिए ब्रिगेडियर उस्मान जैसे अधिकारी सीना तानकर खड़े हो गए.

अक्टूबर 1947 में जम्मू- कश्मीर में हुए पाकिस्तान समर्थित कबाइलियों के आक्रमण और उसके बाद महाराजा हरि सिंह की तरफ से अपनी रियासत का भारत में विलय करने के बाद जम्मू- कश्मीर को पाकिस्तान के नापाक हाथों में जाने से बचाने की जो मुहिम भारतीय फौज ने शुरु की, उसमें अहम भूमिका निभाई ब्रिगेडियर उस्मान ने.

जम्मू- कश्मीर ऑपरेशन से ब्रिगेडियर उस्मान दिसंबर 1947 में जुड़े. यहां 50 पाराशूट ब्रिगेड की कमान उन्होंने संभाली. 50 पारा बिग्रेड उस समय नौशेरा, झांगर के इलाके में तैनात थी. इससे पहले इसकी कमान ब्रिगेडियर वाईएस परांजपे के पास थी, जिन्होंने एक समय कोटली पर भारत का कब्जा फिर से स्थापित कर दिया था, लेकिन इस इलाके पर दबाव बढ़ने के बाद वहां से शरणार्थियों को सुरक्षित झांगर तक लेकर आए थे. इस दौरान वो घायल और बीमार हुए. इसके बाद 50 पारा ब्रिगेड की कमान ब्रिगेडियर उस्मान के हाथ में आई.

जिस वक्त इस ब्रिगेड की कमान ब्रिगेडियर उस्मान के हाथ आई, उस समय भारतीय सेना के लिहाज से हालात काफी प्रतिकूल थे. पाकिस्तान सेना पुंछ और राजौरी के इलाके में घुस चुकी थी. दुश्मन फौज का बड़ा जमावड़ा था इस इलाके में. पाकिस्तान झांगर और नौशेरा को किसी भी कीमत पर कब्जा करने के लिए बेचैन था, उसके पास संख्या भी बड़ी थी. भारतीय सैनिकों के मुकाबले पाकिस्तानी सैनिकों की तादाद तिगुणे से भी अधिक थी. बावजूद इसके भीषण लड़ाई हुई, भारतीय सैनिकों ने जबरदस्त पराक्रम दिखाया, लेकिन बड़ी संख्या और संसाधनों के कारण 24 दिसंबर, 1947 को झांगर पर पाकिस्तानी सेना का कब्जा हो गया.

ब्रिगेडियर उस्मान के लिए ये स्थिति असह्य थी. उन्होंने कसम खाई कि जब तक झांगर को दुश्मन के कब्जे से वापस नहीं छुड़ा लेंगे, तब तक वो चैन नहीं लेंगे और न ही अपने बिस्तर पर सोएंगे. बिस्तर की जगह फर्श पर सोना शुरु कर दिया ब्रिगेडियर उस्मान ने. झांगर कैसे जीता जाए, इसकी रणनीति बनाने में समय बीत रहा था. दुश्मन का दबाव था, नौशेरा सेक्टर में दस हजार से भी अधिक पाकिस्तानी सैनिक थे.

एक तरफ ब्रिगेडियर उस्मान पाकिस्तानी सेना की चुनौती का सामना कर रहे थे, तो दूसरी तरफ वो भारतीय नागरिकों की मदद कर रहे थे. झांगर पाकिस्तान के हाथ में जान के बाद बड़े पैमाने पर हिंदू शरणार्थी नौशेरा भागकर आए थे. उनके लिए भोजन की व्यवस्था करने के लिए उस्मान ने हर मंगलवार को अपने सैनिकों को उपवास का आदेश दिया, ताकि इससे होने वाली अन्न की बचत शरणार्थियों के काम आ सके.

इस दौरान पाकिस्तानी सेना ने नौशेरा पर कब्जा करने क लिए बार- बार प्रयास किए. सबसे भीषण हमला 6 फरवरी 1948 को किया गया. लेकिन यहां ब्रिगेडियर उस्मान की अगुआई में भारतीय सेना पूरी तरह मुस्तैद थी. संख्या बल अधिक होने के बावजूद पाकिस्तानियों की एक नहीं चली. भारतीय सेना ने न सिर्फ पाकिस्तानी हमलावरों को भगाया, बल्कि बड़े पैमाने पर उनके सैनिकों को भी मार गिराया. कहां पाकिस्तान उम्मीद कर रहा था कि ग्यारह हजार नियमित जवानों और पांच हजार कबाइलियों के भरोसे वो नौशेरा को जीत लेगा, कहां उसके दो हजार जवान इस ऑपरेशन में खेत रहे और पाकिस्तानी फौज को नौशेरा से दुम दबाकर भागना पड़ा.

इस दौरान एक घटना और घटी, जो ब्रिगेडियर उस्मान के राष्ट्रवादी चरित्र को और उभारती है, जहां धर्म से ज्यादा राष्ट्र को अहमियत दी गई थी. इस घटना का जिक्र मेजर जनरल वीके सिंह ने अपनी किताब ‘Leadership in the Indian Army’ में किया है.


किताब में लिखा गया है कि नौशेरा की लड़ाई के दौरान पाकिस्तानी सैनिक एक मस्जिद की आड़ लेकर लगातार भारतीय फौज पर हमले कर रहे थे. सामने मस्जिद होने के कारण भारतीय सैनिक उस तरफ गोलियां चलाने में हिचक रहे थे. ब्रिगेडियर उस्मान ने तत्काल अपने सैनिकों की दुविधा समझ ली. उसके साथ ही उन्होंने सीधा आदेश दिया, मस्जिद को उड़ा दो, क्योंकि अगर ये मस्जिद दुश्मन की आड़ के लिए इस्तेमाल हो रही है, तो ये पाक नहीं रह गई है और इसे उड़ाने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए. ब्रिगेडियर उस्मान के इस आदेश के साथ ही सैनिकों ने मस्जिद को ध्वस्त किया और इसकी कवर ले रहे पाकिस्तानी सैनिकों को मार गिराया. दुश्मन के पांव पूरी तरह उखड़ गये और वो भाग चला.


नौशेरा की हार और ब्रिगेडियर उस्मान के आक्रामक नेतृत्व से परेशान, खिसियाए हुए पाकिस्तान ने उनके सर पर तत्काल पचास हजार रुपये का इनाम रख दिया, जो भी उन्हें जिंदा या मुर्दा लाए. इसके उलट पूरे जम्मू- कश्मीर में भारतीय सैनिकों का मनोबल इस जीत की वजह से काफी बढ़ा, आखिर पाकिस्तान के भारी संख्या बल के बावजूद ये जीत हासिल हुई थी. देश में भी खुशी की लहर दौड़ी. नौशेरा के शेर के तौर पर ब्रिगेडियर उस्मान की चर्चा हर जगह होने लगी.

प्रतिकूल हालात और मौसम की चुनौती के बीच मिली इस जीत के बाद ब्रिगेडियर उस्मान ने अपने जवानों का मनोबल और बढ़ाने की कोशिश की, ताकि झांगर को भी दुश्मन के कब्जे से तुरंत मुक्त कराया जाए. 15 मार्च 1948 को झांगर पर वापस कब्जा करने की मुहिम लांच करने के पहले उन्होंने अपने अधिकारियों और जवानों के लिए जो संदेश जारी किया था, वो ब्रिगेडियर उस्मान के फौलादी हौसले, देशप्रेम और उच्च कोटि के सैन्य नेतृत्व क्षमता का परिचय देता है.


ब्रिगेडियर उस्मान ने अपने संदेश में लिखा था-

“50 पारा ब्रिगेड के मेरे साथियों,

समय आ गया है, जब झांगर पर फिर से कब्जा करने के लिए बनाई गई हमारी रणनीति और तैयारी को परखा जाए. ये एक आसान काम नहीं है, लेकिन मुझे कामयाबी का पूरा भरोसा है, क्योंकि हमारी रणनीति मजबूत है और तैयारी अच्छी. इसके साथ ही, मुझे आप सब पर भरोसा है कि 24 दिसंबर को हमें जिस जगह को छोड़ना पड़ा था, उसे वापस हासिल करने के लिए हम अपना सब कुछ दांव पर लगा देंगे और अपनी फौज की इज्जत को वापस हासिल करेंगे.

हमारे देशवासियों की उम्मीदें और आशाएं हमारी मेहनत पर टिकी हैं. हम हिचकेंगे नहीं, हम नाकामयाब नहीं होंगे.


इस पृथ्वी पर जिसने भी जन्म लिया है, उसको जल्द या देर से मरना ही है. एक व्यक्ति की इससे बेहतर मौत क्या होगी कि वो भयावह चुनौतियों के सामने अपने पिता की राख और अपने भगवान के मंदिरों के लिए मरे.

इसलिए, दोस्तों, आगे बढ़ो, निर्भीक होकर हम झांगर की तरफ बढेंगे. भारत हम सबसे उम्मीद कर रहा है कि हम अपना कर्तव्य निभाएं.

जय हिंद

मोहम्मद उस्मान

ब्रिगेडियर”

ब्रिगेडियर उस्मान के इस जोशीले संदेश और उनकी अगुआई में 15 मार्च 1948 से 50 पारा ब्रिगेड ने झांगर की तरफ कूच किया. दूसरी तरफ से 19 ब्रिगेड आगे बढ़ी. लगातार तीन दिन की लड़ाई के बाद 18 मार्च 1948 का सूरज डूबने से पहले झांगर पर कब्जा कर लिया गया, पाकिस्तानी फौज को मार भगाया गया.


झांगर की इस जीत ने जहां ब्रिगेडियर उस्मान की लोकप्रियता भारत में नई उंचाई पर पहुंचा दी, वही दूसरी तरफ पाकिस्तान का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया. उस्मान उसके अस्तित्व पर बड़ा सवाल खड़ा कर रहे थे.


नैशेरा के हीरो

लेफ्टिनेंट जनरल एसके सिन्हा, जो 1947-48 की लड़ाई के दौरान युवा सैन्य अधिकारी थे और मिलिट्री ऑपरेशंस डायरेक्टोरेट में काम कर रहे थे, उन्होने अपनी किताब ‘Operation Rescue’ में लिखा है कि ब्रिगेडियर उस्मान के लिए पूरे भारत में नौशेरा के हीरो के तौर पर तालियां बजीं, लेकिन दुश्मन देश पाकिस्तान के लिए वो आंख की किरकिरी बन गये थे, पाकिस्तान उनको लेकर काफी गुस्से में था. पाकिस्तानी हुक्मरानों को समझ में नहीं आ रहा था कि उन्होंने अपनी जिस सांप्रदायिक सोच के तहत हिंदू और मुसलमान दोनों को अलग राष्ट्र मानते हुए मुसलमानों के लिए Two- Nation Theory के आधार पर पाकिस्तान हासिल कर लिया, उसमें भला ब्रिगेडियर उस्मान जैसा मुस्लिम अधिकारी ‘हिंदू इंडिया’ और इसकी सैन्य मोर्चे पर कामयाबी में कैसे भला बड़ी भूमिका निभा सकता है.

लेकिन भारत को अपने इस अधिकारी पर फख्र था, अपने समावेशी चरित्र पर गर्व था, इसलिए सांप्रदायिक हिंसा की आग में विभाजन के साथ लपटे जाने और फिर पाकिस्तान से युद्ध लड़ने की हालत में भी उसने ब्रिगेडियर उस्मान का धर्म नहीं देखा, बल्कि उनकी योग्यता को तरजीह देते हुए युद्ध के सबसे संवेदनशील मोर्चे पर उन्हें तैनात किया. ब्रिगेडियर उस्मान भी मां भारती के भरोसे पर पूरी तरह खरे उतरे और नौशेरा की रक्षा करने के साथ ही झांगर को भी भारत के कब्जे में ला दिया.

लेकिन झांगर में मिली करारी हार के बावजूद पाकिस्तान अपने नापाक मंसूबों से बाज नहीं आ रहा था. झांगर का काफी बड़ा सामरिक महत्व था, इसलिए हर कीमत पर वो कब्जा करना चाह रहा था. ऐसी ही कोशिश के तहत 3 जुलाई 1948 को उसने झांगर पर गोले दागने शुरु कर दिये. इन्हीं में एक गोला उस पत्थर पर आकर गिरा, जिसके बगल में थी ब्रिगेडियर उस्मान की कमांड पोस्ट. जवाबी कार्रवाई के लिए निर्देश देते हुए हुए ब्रिगेडियर उस्मान कमांड पोस्ट के अंदर जा ही रहे थे, तब तक दुश्मन के गोले से निकले धारदार छर्रे उनको जाकर लगे और नौशेरा के शेर ने अपना सर्वोच्च बलिदान मां भारती की रक्षा करते- करते दे दिया.


शादी के सेहरे की जगह…

ब्रिगेडियर उस्मान के शहादत की खबर लगते ही पूरे देश में शोक की लहर छा गई. सामान्य सैन्य सम्मान की जगह पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया गया. जिस समय ब्रिगेडियर उस्मान ने अपनी शहादत दी, उस समय वो छत्तीस साल के भी नहीं हुए थे, बारह दिन बचे थे. उनकी शादी भी नहीं हुई थी, युद्ध समाप्त होने के बाद उन्होंने शादी की सोची थी, सर पर सेहरा बंधवाने की सोची थी. लेकिन शादी के सेहरे की जगह नौशेरा और झांगर की जीत का सेहरा ब्रिगेडियर उस्मान ने अपनी अगुआई में भारतीय सेना को बंधवाने को प्राथमिकता दी. ये सब करते हुए उन्होंने जिन्ना और पाकिस्तान को खूब मुंह चिढ़ाया, Two Nation Theory की हवा निकाल दी.

ब्रिगेडियर उस्मान की शहादत अब भी पाकिस्तान और उसके हुक्मरानों का मुंह चिढ़ाने का काम कर रही है, जिनकी संकीर्ण जेहादी मानसिकता में दूसरे धर्मों और उनका पालन करने वालों के लिए कोई सम्मान नहीं है. अपने यहां लगातार अल्पसंख्यक हिंदुओं और सिखों की प्रताड़ना करते हुए पाकिस्तान ने उनकी आबादी नगण्य कर दी है, वही ब्रिगेडियर उस्मान ने जिस भारत को चुना, वहां दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी रह रही है, फल- फूल रही है और हर अवसर का लाभ उठा रही है. ये बात मुनीर जैसे मदरसा छाप जनरल को समझ में नहीं आएगी, जिसकी दुनिया जेहादी, संकीर्ण, सांप्रदायिक मानसिकता के साथ शुरु हुई थी, और वही खत्म भी हो जाएगी. ब्रिगेडियर उस्मान को जहां पूरा भारत हमेशा याद करता रहेगा, वहां आसिम मुनीर जैसे लोग इतिहास के फुटनोट्स में भी नजर नहीं आएंगे, उस पाकिस्तानी मदरसा सिस्टम के पाठ्यक्रम में भी नहीं, जहां उनसे ज्यादा जेहादी मानसिकता वाला कोई नेता, मौलाना या फिर अधिकारी उनकी जगह ले चुका होगा और पाकिस्तान को बर्बादी के अंतिम कगार तक पहुंचा रहा होगा.

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi उत्तरदायी नहीं है.)

Read Full Article at Source