Last Updated:April 29, 2025, 09:56 IST
Supreme Court on Sharia Court: सुप्रीम कोर्ट ने शरिया अदालतों को भारतीय कानून के तहत मान्यता नहीं दी है और उनके फैसले बाध्यकारी नहीं हैं. यह फैसला जस्टिस सुधांशु धुलिया और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्ला की बेंच न...और पढ़ें

सुप्रीम कोर्ट ने शरिया अदालतों को लेकर बड़ा फैसला दिया है. (प्रतीकात्मक)
हाइलाइट्स
सुप्रीम कोर्ट ने शरिया अदालतों को भारतीय कानून के तहत मान्यता नहीं दी.शरिया अदालतों के फैसले बाध्यकारी नहीं हैं, केवल स्वीकृति पर लागू होते हैं.सुप्रीम कोर्ट ने 2014 के विश्वरंजन मदन मामले का हवाला दिया.नई दिल्ली. सुप्रीम कोर्ट ने शरिया अदालतों को लेकर बड़ा फैसला सुनाया है. कोर्ट ने कहा कि शरिया कोर्ट या काजी की अदालत को भारतीय कानून के तहत कोई मान्यता नहीं है और उनके फैसले को मानने की किसी पर भी बाध्यता नहीं. अदालत ने यह भी साफ किया कि ऐसे फैसले केवल उन्हीं पक्षों पर लागू हो सकते हैं जो उन्हें स्वीकार करते हैं, बशर्ते वे दूसरे किसी कानून से विरोधाभासी न हों.
जस्टिस सुधांशु धुलिया और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्ला की बेंच ने यह फैसला 4 फरवरी को सुनाया था, जिसकी डिटेल अब सामने आई है. अपने फैसले में उन्होंने कहा कि शरिया कोर्ट, काजी की अदालत, या दरुल कजा जैसी संस्थाओं को भारतीय संविधान के तहत कोई वैधता नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
अदालत ने 2014 में दिए गए विश्वरंजन मदन मामले के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि ऐसे फैसलों का कोई कानूनी महत्व नहीं है और इन्हें किसी प्रकार की ज़बरदस्ती से लागू नहीं किया जा सकता.
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस अमानुल्ला ने कहा, ‘काजी की अदालत, दारुल कजा, शरिया कोर्ट… चाहे इन्हें कोई भी नाम दिया जाए, कानून के तहत इनकी कोई मान्यता नहीं है. ऐसे किसी भी निर्णय को केवल तब तक मान्यता प्राप्त हो सकती है, जब संबंधित पक्ष उसे स्वीकार करते हैं और वह किसी अन्य कानून का उल्लंघन न करता हो.’
क्या है पूरा मामला?
यह मामला एक मुस्लिम महिला का था, जिसने अपने गुजारे-भत्ते को लेकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. महिला ने 3 अगस्त 2018 को इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ याचिका दायर की थी, जिसमें पति से भरण-पोषण की उसकी मांग को फैमिली कोर्ट ने खारिज कर दिया था.
महिला और उसके पति की शादी 2002 में हुई थी, जो दोनों के लिए दूसरी शादी थी. इस विवाह से एक बेटी और एक बेटे का जन्म हुआ था. 2005 में पति ने भोपाल के ‘काजी कोर्ट’ में तलाक की याचिका दायर की थी, लेकिन यह याचिका दोनों के बीच समझौते के कारण खारिज कर दी गई. महिला का आरोप था कि पति उसे दहेज की मांग को लेकर प्रताड़ित करता था और 2008 में उसे और बच्चों को घर से बाहर निकाल दिया था.
फैमिली कोर्ट और हाईकोर्ट से भी महिला को झटका
महिला ने 2008 में फैमिली कोर्ट में भरण-पोषण के लिए 5,000 रुपये महीना और बच्चों के लिए 1,000 रुपये महीने की मांग की थी. फैमिली कोर्ट ने बेटी के लिए 1,500 रुपये और बेटे के लिए 1,000 रुपये महीना भरण-पोषण दिया. हालांकि महिला के लिए भरण-पोषण देने से इनकार कर दिया था. कोर्ट ने यह माना था कि महिला के पति ने उसे नहीं छोड़ा था, बल्कि वह खुद अपनी मर्जी से अलग हो गई थी.
इसके बाद महिला ने हाई कोर्ट में अपील की, जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया. कोर्ट ने कहा कि चूंकि महिला बिना उचित कारण के पति से अलग रह रही थी, फैमिली कोर्ट की ओर से दिए गए फैसले को गलत नहीं ठहराया जा सकता था.
सुप्रीम कोर्ट ने इस अपील पर सुनवाई करते हुए कहा कि समझौते के तहत दोनों पक्षों के बीच कोई ठोस बुनियादी कारण नहीं था, और इसलिए भरण-पोषण की याचिका को खारिज करना उचित नहीं था. अदालत ने कहा कि फैमिली कोर्ट को यह मान लेना कि दोनों पक्षों की दूसरी शादी के बाद दहेज की मांग नहीं हो सकती, यह पूरी तरह गलत था.
Location :
New Delhi,Delhi
First Published :
April 29, 2025, 09:56 IST